Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश - भारती-2
पिय विरहानल संतविअ जइ वच्चउ सुर लोइ । तुह छड्डवि हिअट्ठियह तं परिवाडि ण होइ 125
पुरुषत्व को ललकारने की प्रथा लोकजीवन की अपनी विशेषता है । विरहिणी भी ऐसी ही वचन - भगिमा के चातुर्य का प्रयोग करती हुई कहती है- विरह तो नारी हृदय की विवशता है पर क्या तुम्हारे पौरुष को चुनौती नहीं है । "क्या तुम नहीं जानते की जिन अंगों के साथ तुमने रंगरेलियाँ की वे ही अंग तुम्हारे हृदय तल में होते हुए भी विरह के द्वारा जलाये जा रहे हैं
गरुहउ परिहउ किं न सहउ, पइ पोरिस निलएण । जिहि अंगहि तु विलसियउ, ते दद्धा विरहेण 126
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मुंज और मृणालवती से सम्बंधित दोहे अपने प्रसंग-गर्भत्व के कारण एक पूरी कहानी की पृष्ठभूमि लिये हुए हैं । इसमें साहसिक प्रेम और अतिकारुणिकता की भाव- दशा भले ही राजा-रानी की कहानी लिये हो, पर है वह लोकजीवनोद्भूत । यह परवर्ती प्रेमाख्यानक काव्यों के उत्स की एक कड़ी है । यदि नाम हटा दिया जाय तो यह कहानी लोकरस से युक्त लोक-कथा बन जायेगी । अपनी सरस प्रेमभंगिमा, अतिकारुणिक परिणति, निजी अनुभवों की पीड़ा के कारण मुंज के दोहों में जो मर्मस्पर्शिता मिलती है, अन्यत्र दुर्लभ है । जाते हुए यौवन, छल-छद्म अपनाकर भी प्रेम को पकड़े रहने की असफलता, आत्मग्लानि से पीड़ित मृणालवती को मुंज जाते-जाते समझाता गया 'जाते हुए यौवन को न पछता । शर्करा के सौ खंड हो जाने पर भी उसका चूरा वैसा ही मीठा होता है
मुंज भणइ मुणालवइ जुब्बण गयउ न झूरि । जइ सक्कर सय खंड थिय तो इस मीठी चूरि 127
अपभ्रंश के दोहे इस प्रकार जहाँ लोकचित्र की कोमल भावनाओं के विविध रूपों के साक्षात्कार से रससिक्त करते हैं, वहीं अपनी लोकोन्मुखी दृष्टि के चलते साधारण मनुष्य के सुख-दुःख को अपने दायरे में प्रतिष्ठित करते हैं । इसके साथ ही विशिष्ट की तुलना में अपनी पहचान को उद्घाटित करते हैं किसान को अपनी खेतिहर जमीन कितनी प्यारी होती है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है । यह विडंबना ही है कि शोषकों द्वारा वह भी छिन जाती है फिर भी किसान उसकी रक्षा के लिए संघर्ष करता है । जब उसका जीवन समाप्त होने को होता है तो वह अपने संघर्ष को अपने पुत्र के पौरुष को ललकारते हुए उसके हाथ में पकड़ा देता है । बेटा ! एक बात गाँठ बाँध ले कि उस पुत्र के पैदा होने या मरने से कोई लाभ-हानि नहीं जिसके बाप की भूमि दूसरों द्वारा हड़प ली जाय
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पुत्रे जाएँ कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुएण ।
जा बप्पी की भुहडी चम्पिज्जइ अवरेण । "28
यह जीवन-संघर्ष लोकजीवन की त्रासदिक जीवन गाथा है । वह आज भी समाप्त नहीं हुई है । अपभ्रंश के कतिपय दोहे अपनी लोकसंपृक्ति के कारण आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितना प्रेमचंद जैसे लेखकों का आज का साहित्य । किसान की गरीबी, उसकी फटेहाली आज भी किसी भी सरकार या मानवता के लिए कलंक है । अपभ्रंश का कवि जन-जीवन की इस त्रासदिक पीड़ा को कितनी गहराई से छूता है, द्रष्टव्य है किसानी पीड़ा के इस दर्द को मनुष्य पकड़े या न पकड़े, उसके जीवन का साथी उसका धौला बैल पकड़ता है, जहाँ जुये में एक तरफ वह और
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