Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
View full book text
________________
अपभ्रंश-भारती-2
जहाँ द्राक्षा-मंडप के हिलने से पथिक मधुर रसरूपी सलिल का पान कर रहे हैं । इस प्रकार के वर्णन में अलंकारप्रियता के साथ-साथ कवि की सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति और परम्परा से ऊपर उठ कर लोक-दर्शन की भावना भी अभिव्यक्त हो रही है । यहाँ पर प्रकृति का उद्दीपन रूप में वर्णन न कर आलंबनात्मक रूप में कवि ने वर्णन किया है । समुद्र का वर्णन करते हुए कवि कहता है -
मण-गमणेहिं गयणि पयट्टएहि, लक्खिउ-लवण समुद्द किह ।
महि-मंडयहो णहयल-रक्खसेण, फाडिउ जठर-पयेसु जिह ॥' समुद्र क्या है मानो नभतल राक्षस ने महिमंडल के जठर प्रदेश को फाड़ दिया हो । फटे हुए जठर प्रदेश में रक्त के बहने से एक तो समुद्र का रंग रक्तवर्ण होना चाहिए, दूसरे इस उपमा से समुद्र की भयंकरता का भाव उतना व्यक्त नहीं होता जितना जुगुप्सा का । इसी प्रकरण में कवि ने श्लेष से समुद्र की तुलना कुछ ऐसे पदार्थों से की है जिनमें शब्द-साम्य के अतिरिक्त और कोई साम्य नहीं -
सूहव-पुरिसो व्व सलोण-सीलु । दुज्जण पुरिसो व्व सहाव-खारु । णिद्धण-आलावु व अप्पमाणु । जोइसु व मीण-कक्कडय-थाणु ।
महकव्व-णिबन्धु व सद्द-गहिरु ।' - समुद्र सत्कुलोत्पन्न पुरुष के समान है; क्योंकि दोनों सलोणशील हैं अर्थात् समुद्र सलवण (शील) और सत्कुलोत्पन्न पुरुष सलावण्यशील । इसी प्रकार समुद्र दुर्जन पुरुष के समान स्वभाव से क्षार है । निर्धन के आलाप के समान अप्रमाण है । ज्योति-मंडल के समान मीन (मीन राशि तथा मछली) कर्कट (कर्क राशि तथा जलजन्तु विशेष) निधान है । महाकाव्य निर्बन्ध के समान शब्द-गंभीर
कवि का गोदावरी नदी का वर्णन भी दर्शनीय है - थोवतरे मच्छुत्थल्ल दिति । गोला णइ दिट्ठ समुव्वहति । सुसुयर घोर-घुरु-घुरु-हुरंति । करि-मयरुड्डोहिय डुहु-दुहति । डिंडीर-सड-मंडलिय दिति । ददुरय-रडिय डुरु-हुरु-डुरंति । कल्लोलुल्लोलहि, उव्वहति । उग्घोस-घोस-घव-घव-घवति । पडि-खलण-वलण खल-खलखलति । खल-खलिय-खलक्क-झडक्क दिति । ससि-संख-कुंद-धवलोज्झरेण । कारंडुड्डाविय डवरेण । फेणावलि वकिय, वलयालकिय, ण महि कुलबहुणअहे तणिय ।
जलणिहि भत्तारहो, मोत्तिय-हारहो, वाह पसारिय दाहिणिय ॥ भाषा अनुप्रासमयी है । भावानुकूल शब्द योजना है । शब्दों की ध्वनि नदी-प्रवाह को अभिव्यक्त करती है ।
प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हुए उनकी भिन्न-भिन्न दृश्यों या घटनाओं से तुलना करना या प्रकृति को उपमेय मानकर उसके अन्य उपमानों के प्रयोग की प्रणाली भी कवि ने अपनायी है। वन का वर्णन करता हुआ कवि कहता है -