Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ अपभ्रंश-भारती-2 खण्ड में सांभर के राजा बीसलदेव का मालवराज भोज परमार की पुत्री राजमती से विवाह होने का आख्यान वर्णित है । द्वितीय खण्ड में बीसलदेव अपनी पत्नी से रूठ जाता है और घर-बार छोड़कर उड़ीसा की ओर चला जाता है । तृतीय खण्ड राजमती के विरह-वर्णन से सम्बद्ध है और यहां कवि को नायिका के विरह-वर्णन के मिस बारहमासे का विस्तृत चित्रण का अवसर मिल जाता है । इसी खण्ड में बीसलदेव का उड़ीसा से वापस लौटने का उल्लेख है । चतुर्थ खण्ड में भोज अपनी बेटी को घर वापस ले जाता है । कालान्तर में बीसलदेव ससुराल जाकर अपनी पत्नी को विदा कराकर चित्तौड़ लौट आता है । बीसलदेव रासो में शृंगार रस की प्रधानता है । जहाँ कहीं नायक के शौर्य आदि गुणों का उल्लेख हुआ भी है वह भी शृंगार-मण्डित ही है । बीसलदेव रासो में कवि ने अपने काव्य की रचना-तिथि का उल्लेख करते हुए लिखा है - बारह सौ बहोतरा मझारि, जेठ बदी नवमी बुधवारि । नाल्ह रसायण आरंभई, सारदा उठी ब्रह्मा विचारि ॥ आचार्य शुक्ल ने "बहोतरा" को द्वादशोत्तर का रूपान्तर माना है और यह मन्तव्य प्रकट किया है कि संवत् 1212 में ज्येष्ठ की नवमी बुधवार को इस ग्रंथ का निर्माण हुआ । इसकी पुष्टि बीसलदेवकालीन शिलालेखों से भी हो जाती है पर अन्य विद्वान् आचार्य शुक्ल के इस निर्णय पर आपत्ति करते हैं । डॉ. रामकुमार वर्मा बीसलदेव का समय संवत् 1058 मानते हैं । पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार बीसलदेव का समय संवत् 1030 से 1056 तक है । मिश्र बन्धुओं के अनुसार बीसलदेव का रचनाकाल 1220 और लाला सीताराम के अनुसार 1272 है । बीसलदेव की भाषा का संकालिक अध्ययन करने के उपरान्त डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा मोतीलाल मेनारिया बीसलदेव रासो को संवत् 1545 से सं. 1560 के बीच लिखा हुआ काव्य मानते हैं । डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने बीसलदेव रासो का रचनाकाल 14वीं शती माना है और डॉ. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने 16वीं-17वीं शती । वास्तव में काव्य में प्रयुक्त वर्तमानकालिक क्रिया के प्रयोग के आधार पर नरपति नाल्ह को बीसलदेव का समसामयिक सिद्ध करना पूर्णतः वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। बीसलदेव रासो की भाषा एक ओर अपभ्रंश का रूप लिये हुए है और दूसरी ओर हिन्दी की ओर झुकती जान पड़ती है । इसे आचार्य शुक्ल ने पिंगल की रचना माना है । बीसलदेव रासो उर्दू-फारसी के शब्दों का व्यवहार करनेवाली रचना है । लगता है कि नरपति नाल्ह के समय तक कवि अपभ्रंश की शुद्धता और शास्त्रीयता का मोह छोड़ चुके थे और उसमें प्रादेशिक बोलियों का मिश्रण करने लगे थे । भाषा के तत्कालीन रूप का अध्ययन करने के लिए बीसलदेव रासो एक महत्त्वपूर्ण कृति है । सन्देश-रासक के विरुद्ध बीसलदेव रासो में एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है। यह केदार राग में गेय है और नृत्य-गीत के योग्य है । वास्तव में अपभ्रंश और हिन्दी के संक्रमणकालीन साहित्य का अध्ययन अपनी परम्परा को जानने के लिए तो आवश्यक है ही, अपने समकालीन भाषा तेवरों को समझने के लिए भी उपयोगी है। जैसे आज से एक हजार वर्ष पूर्व अपभ्रंश अपनी अपभ्रंशता छोड़कर सामान्य लोक में प्रचलित भाषा की ओर झुक रही थी, ठीक वैसे ही आज की परिनिष्ठित हिन्दी का आग्रह रचनाकारों के बीच शिथिल होता जा रहा है । मैला आंचल, नेताजी कहिन. जिन्दगीनामा. मैयादास की पाडी में जिस

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156