Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती-2
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होता है और हर एक कडवक के अन्त में घत्ता । इसी बात को नाथूराम प्रेमी ने लिखा है - "अपभ्रंश काव्यों में सर्ग की जगह प्रायः सन्धि का व्यवहार किया जाता है। प्रत्येक सन्धि में प्रायः अनेक कडवक होते हैं । और एक कडवक आठ यमकों का तथा एक यमक दो पदों का होता है । एक पद में यदि वह पद्धडिया-बंध हो तो 16 मात्राएँ होती हैं । हेमचन्द्र के अनुसार चार पद्धडिया यानी आठ पक्तियों का कडवक होता है । हर एक कडवक के अन्त में एक घत्ता या ध्रुवक होता है ।
__ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का अभिमत है - "जिस प्रकार आजकल हम लोग चौपाई लिखने में तुलसीदास की श्रेष्ठता बतलाया करते हैं, उसी प्रकार स्वयम्भू ने चउम्मुह या चतुर्मुख को पद्धडिया का राजा बताया था ।"
"अपभ्रंश काव्यों में पद्धडिया-बन्ध अत्यन्त प्रचलित या । यह चौपाई के समीप का छंद है। कभी-कभी तो पद्धडिया से चौपाई का अर्थ ले लिया जाता है ।"2
इसी प्रसंग में रचनाकार ने संधि-बंध और रासा-बंध का उल्लेख किया है । सामान्यतः प्रबन्ध काव्य संधि-बंध होते हैं । जैसा कि ऊपर कहा गया है अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्यों में सर्ग की जगह सधि का ही व्यवहार होता है । एक संधि में अनेक कडवक होते हैं । स्वयं स्वयम्भू रचित 'पउमचरिउ' 90 सधियों में और 'रिटुणेमिचरिउ' 112 सन्धियों में रचित है । पुष्पदंत का महापुराण भी सन्धि-बन्ध महाकाव्य है ।
स्वयम्भू ने रासक और रासाबन्ध दोनों का उल्लेख किया है । रासक छंद विशेष भी है और काव्यरूप भी । रासा छंद 21 मात्राओं का समचतुष्पदी छंद है । इसमें 14 मात्रा पर यति होती है और अतिम तीन मात्राएँ लघु होती हैं ।
रासा-बन्ध काव्य एक प्रकार का गीति-काव्य (Lyric-Poetry) था । हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व, 35) एवं विष्ण-पुराण (पंचम अंश, 49-50) में गोपालों के नृत्य के रूप में 'रास' का उल्लेख मिलता है । बाणभट्ट के हर्षचरित में उल्लेख मिलता है कि रास में नृत्य का भी आयोजन होता था । बाणभट्ट ने रासक मण्डल की उपमा आवर्त से दी है - सावर्त इव रासक मण्डलैः 14 नृत्य के अतिरिक्त गेय तत्व का समावेश भी इसमें था । 'हर्षचरित' में 'अश्लील रासक पदानि का उल्लेख आता है । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसका अर्थ स्त्रियों द्वारा गाये जानेवाले गीतों से लगाया है । अतः रासक में उसका गेयरूप उतना ही महत्त्वपूर्ण था, जितना नृत्यरूप । कालान्तर में 11वीं शताब्दी तक आते-आते रासक में नृत्य तत्व का अभाव होने लगा और गेय तत्व प्रमुख हो गया। 12वीं सदी के जैन आचार्य हेमचन्द्र ने (काव्यानुशासन, 8.4) रासक की गणना गेय उपरूपकों में की है । उन्होंने गेय उपरूपकों में डोम्बिका, भरण, प्रस्थान, माणिका, प्रेरक, रामा क्रीड़, हल्लीसक, रासक, गोष्ठी आदि के नाम गिनाए हैं ।
गेय डोम्बिका भरण प्रस्थान शिंगकभाणिका प्रेरण रामा क्रीड़ । हल्लीसक रासक गोष्ठी श्रीगदित राग काव्यादि ।
- काव्यानुशासन, 8.4 हेमचन्द्र के अनुसार रासक एक उद्धत प्रधान गेय उपरूपक है जिसमें थोड़ा बहुत मसृण का भी प्रवेश हो जाया करता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की मान्यता है कि रासक में ब नर्तकियाँ विचित्र ताल-लय के साथ योग देती थीं । साहित्य-दर्पण (षष्ठ परिच्छेद) में नाट्य रासक