Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 115
________________ 106 अपभ्रंश-भारती-2 वरिसइ घणोहु अच्छिन्नधारु कालम्मि कम्मि महिजणियसत्तु, सिहिवल्लह वासारत्तु पत्तु । पाउससिरि-संतरयबरीय, हेट्ठामुह-लबिपओहरीय । घणपडलछण्णतारयविहाइ, उल्लसियकासु जरथेरि नाई । वरिसइ घणोह अच्छिन्नधारु, तरुवरदलघट्टणतारतारु । गिरिकडणि सिलायडे मंदमंद, हलकिछत्तमालेस संदु । आलावणिवज्जहो अणुहरंतु, सरि-सर-निवाण-दरि-दह भरंतु । पडणुच्छलतजलु धरणि वहइ, फलिहमयलिंगजडिले व सहइ । निसिदिवससत्त धाराहरु वरिसइ पूरियधरणियलु । संचारु न लब्भइ सलिले हुउ आदण्णउ जगु सयलु । फुट्टतलायपालिवहनिग्गय, नइउण्णाहलग्गजलयर गय । थिप्पिर-जुण्ण-तण्ण-कुडिलीणई, कंदिरडिभई तवणविहीणईं। सलसलति भुक्खई सविडंबई, निव्ववसायइ रोड-कुडबई। नीडनिवासिएहिं अच्छिज्जइ, वार वार पक्खिहि मुच्छिज्जइ । - जम्बूसामिचरिउ 9.9, 10 - किसी समय पृथ्वी में अनेक सत्वों को उत्पन्न करनेवाला शिखि-वल्लभ वर्षाऋतु प्राप्त हुआ । अंबर में रज शान्त हो गया, मेघ अधोमुख होकर आकाश में लटक गये । मेघपटल से तारकगण आच्छादित हो गये और काश (नामक घास) खूब फूल उठे । उत्तम वृक्षों के पत्रों से संघटन करता हुआ वारिद (मेघ) समूह गिरिमेखला और शिलातटों पर मंद-मंद एवं हल चलाई हुई खेत-मालाओं में खूब घना, वीणा के वादन के स्वर का अनुसरण करता हुआ, नदी, तड़ाग, गढ़ों, दरों व दहों को भरता हुआ अविच्छिन्न धारा से बहने लगा । वर्षा गिरने से उछलते हुए जल को धारण करती हुई पृथ्वी ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो स्फटिकमय लिंगों से जड़ दी गई हो । सात रात-दिनों तक मेघ निरन्तर बरसता रहा, उसने धरातल को जल से पूर दिया। पानी के कारण संचरण (माग) मिलना भी कठिन हो गया, सारा जग व्याकुल हो गया । तालाबों की पाल फूट गई, उससे जल का प्रवाह बह निकला । नदी की बाढ़ में पड़कर जलचर बह गये । खाद्य-पदार्थों के न मिलने से क्रन्दन करते हुए बच्चे गलती हुई जीर्ण तृणनिर्मित कुटियों में लीन हो गये । कुटुम्बीजन भूख से व्याकुल होकर सलबलाने लगे और व्यवसायहीनता के कारण हैरान हो गये । पक्षी अपने नीड़ों में ही निवास करते रह गये और मूर्छित होने लगे। अनु., डॉ. विमलप्रकाश जैन

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