Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 123
________________ 114 अपभ्रंश-भारती-2 सरोवरों की जो शोभा ग्रीष्म-द्वारा हर ली गई थी वह नव शरदागमन से फिर लौट आयी । xxxx रात्रि में शशि-ज्योत्स्ना ने धवल गृहों को सुशोभित कर दिया । ... मैं रति से वचित, प्रिय से शून्य शैया पर लेटती हुई हत शरद् की रात्रि को, जो यमराज के प्रहार के सदृश घातक है, बिताती हूँ । जिन नारियों के रमते हुए कंत साथ हैं, उन भ्रमण करती हुई स्त्रियों से सरोवर के तट शोभित हैं । xxxx कोई पुण्यवती केलि करती है और मैं रोते हए उद्विग्नतापूर्वक रात बिताती हूँ । घर-घर रमणीय गीत होते हैं । सारा दुःख अकेले मुझे ही दे दिया है (छन्द-160-180)। इस प्रकार रासककार ने प्रकृति-चित्रण में न तो 'ढोला-मारू-रा-दहा के समान प्रणय-क्षेत्र में भय की अवतारणा की है और न 'पृथ्वीराज-रासौ सदृश परम्परा का अनुसरण किया है। प्रत्युत अपने वर्ण्य के अनुरूप सदा लोक-धरातल पर खड़े रहकर उसे और अधिक हृदयग्राही बना दिया है । उसकी भाव-प्रवणता और मौलिकता प्रशंसनीय है । षट्ऋतु-वर्णन के उपरांत ज्यों ही वह विरहिणी पथिक को आशीष देकर विदा करती है (छ. 222), दक्षिण-दिशा से उसे अपना पति आता हुआ दीख पड़ता है (छ. 223) । अकस्मात् विरह का सम्पूर्ण रंगमंच मिलन के हर्षातिरेक में परिणत हो जाता है और यहीं रासककार अपने पाठकों को आशीर्वाद. देकर प्रस्तुत प्रबन्ध की इतिश्री करता है । जिस प्रकार इसका प्रारम्भ नाटकीय ढंग से होता है, उसी भाँति अंत भी बड़ा आकर्षक बन पड़ा है । भले ही, सुखान्तता रासक-काव्यरूप की अपनी विशेषता हो, लेकिन इस प्रकार के आद्यन्त से इसका रूप विलक्षण तथा अतुलनीय बन गया है । अस्तु, लोक-गीतात्मक यह प्रबन्ध भावानुभूति की सौंधी-सुगंध और रूप-शिल्प तथा बनावट और बुनावट दोनों दृष्टियों से जहाँ अपभ्रंश-साहित्य की मधुरतम रस-वल्लरी है, वहाँ परवर्ती हिन्दी-साहित्य के लिए अनूठा अवदान है । 1. तुह विरहपहरसंचूरिआईं विहडति जं न अंगाई । तं अज्ज-कल्ल-संघडण-आसहे णाह तग्गति ॥72॥ द्वि. प्रक्रम, पृ. 19 । . - संदेश-रासक, संपा.-हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं विश्वनाथ त्रिपाठी 2. 'अत्यलोहि अकयत्थि इकल्लिय मिल्हिया' - छ. 92 पृ. 23, द्वि. प्रक्रम । ___ 'मह हह कि वि दुग्गु वणिज्जइ णिब्भय' - छ. 208, पृ. 52, तृतीय प्रक्रम । 3. द्रष्टव्य - 'मधुमती', राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर, पृ. 8-19 । 4. रास और रासान्वयी काव्य, प्रका. ना. प्र. सभा काशी, पृ. 62, 82 । 5. वही, पृ. 138, 144 । 6. माणुस्सदिव्वविज्जाहरेहिं णहमग्गि सूर-ससिबिबे । ___ आएहिं जो णमिज्जइ त णयरे णमह कत्तारं ॥2॥ सन्देश रासक, पृ. 3 । 7. सन्देश-रासक, संपादक-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा विश्वनाथ त्रिपाठी, प्रथम प्रक्रम, छं. 4, पृ. 3 । 8. हिन्दी-साहित्य का इतिहास (प्रथम भाग), डॉ. दयानंद श्रीवास्तव, पृ. 79 । 9. पुव्वच्छयाण णमो सुकईण य सद्दसत्थकुसलाण । तियलोए सुच्छंद जेहिं कयं जेहि णि४ि ॥5॥

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