Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 112
________________ अपभ्रंश भारती-2 यह मत 'धर्म सम्प्रदाय' के नाम से भी पुकारा जाता था। धर्माष्टक नामक एक निरंजन स्तोत्र में 'निरंजन' की ठीक इसी प्रकार के शब्दों में स्तुति की गई है ऊँ न स्थान न च धातुवर्णं । न मान च चरणाविन्द रेख न दृष्टिः श्रुता न श्रुता न श्रुतिस्तस्ये नमस्तेतु न पीत न रक्त न रेत न हेमस्वरूप न निरंजनाथ ॥ च वर्णकर्ण । दृष्टा ॐ श्वेतं न पीत न चन्द्रार्कवह्नि उदय न अस्त तस्मै नमस्तेऽस्तु निरंजनाथ ॥ ॐ न वृक्ष न मूल न बीज न चाकुर शाखा न पत्र न च स्कंधपल्लवं । न पुष्प न गंध न फूल न छाया तस्मै नमस्तेऽस्तु निरंजनाथ ॥ ॐ अधा न ऊर्ध्वं शिवो न शक्ती नारी न पुरुषों न च लिंगमूर्तिः । हस्त न पाद न रूप न छाया तस्मै नमस्तेऽस्तु निरंजनाथ ॥ ( धर्म पूजा विधान पू. 77-78) - - यह निरंजनदेव ही परमात्मा है । इसे जिन, विष्णु, बुद्ध और शिव आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है 1 26 इसको प्राप्त करने के लिए बाह्याचार की आवश्यकता नहीं । जप, तप, ध्यान, धारणा, तीर्थाटन आदि व्यर्थ है । इसको तो निर्मलचित्त-व्यक्ति अपने में ही प्राप्त कर लेता है । मानसरोवर में हंस के समान निर्मल मन में ब्रह्म का वास होता है । उसे देवालय, शिल्प अथवा चित्र में खोजना व्यर्थ है 127 जब मन परमेश्वर से मिल जाता है और परमेश्वर मन से तब पूजा-विधान की आवश्यकता भी नहीं रह जाती, क्योंकि दोनों एकाकार हो जाते हैं. समरस हो जाते है। मणु मिलियउ परमेसरहे परमेसरु वि मणस्स । बीहि व समरसि हूवाहँ पूज्ज चडावऊँ कस्स ॥ 123॥ 103 इस सामरस्य भाव के आने पर हर प्रकार का वैषम्य समाप्त हो जाता है, द्वैत भाव का विनाश हो जाता है । वस्तुतः पिण्ड में मन का, जीवात्मा में तिरोभूत हो जाना या एकमेक होकर मिल जाना ही यह सामरस्य है । इस अवस्था को प्राप्त होने पर साधक को किसी प्रकार के बाह्य आचरण या साधना की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । इस प्रकार श्री योगीन्दु मुनि आठवी-नवीं शताब्दी के अन्य साधकों के स्वर में स्वर मिलाकर ब्रह्म के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के उपाय आदि का मोहक विवरण प्रस्तुत करते हैं। आपका महत्त्व इस बात में भी है कि आपने प्राकृत भाषा को न अपनाकर, जनसामान्य में व्यवहृत भाषा को स्वीकार किया । इससे आपकी उदार मनोवृत्ति का परिचय प्राप्त हो जाता है। श्री ए. एन. उपाध्ये ने ठीक ही लिखा है कि उच्चकोटि की रचनाओं में प्रयुक्त की जानेवाली संस्कृत तथा प्राकृत भाषा को छोड़कर योगीन्दु का उस समय की प्रचलित भाषा अपभ्रंश को अपनाना महत्त्व से खाली नहीं है । इस दृष्टि से वे महाराष्ट्र के संत ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ और नामदेव तथा कर्नाटक के बसबन्न आदि साधकों की कोटि में आते हैं, क्योंकि वे भी इसी प्रकार मराठी और कब्र में अपनी अनुभूतियों को बड़े गर्व से व्यक्त करते हैं " 1. भावि पणविवि पंच गुरु सिरि- जोइन्दु - जिणाउ । भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ ॥8 ॥

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