Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 86
________________ अपभ्रंश-भारती-2 77 के अतिरिक्त अन्य मंगल कार्यों के लिए भी इसका प्रयोग हो सकता है । स्वयम्भु ने: के भी लक्षण दिए हैं जिनके साथ 'मंगल' शब्द जुटा है, जैसे उत्साह मंगल, हेला मंगल, वदनक मंगल आदि । इन्होंने 'मंगल' छंद की जो परिभाषा दी है वह हेमचन्द्र से सर्वथा भिन्न है । स्वयम्भू की परिभाषा के अनुसार मंगल छंद के प्रथम-द्वितीय चरणों में क्रमशः षण्मात्रा, दो चतुर्मात्रा - 14 मात्रा तथा तृतीय-चतुर्थ चरणों में पाँच चतुर्मात्रा अथवा चार पंचमात्रा = 20 मात्रा होती है । हेमचन्द्र (5.39) तथा रत्नशेखर (5.26) के अनुसार इसके प्रथम-द्वितीय चरण में 20 या 21 मात्रा तथा तृतीय-चतुर्थ चरण में 22 या 23 मात्रा होती है । डॉ. वेलंकर इसे अर्धसम चतुष्पदी मानते हैं । षट्पदजाति' शीर्षक अध्याय के प्रारम्भ में स्वयम्भू ने धुवक पर विचार किया है । अपभ्रंश काव्यों में ध्रुवक का प्रयोग उस अनुच्छेद के लिए किया जाता है, जो कडवक या सन्धि के प्रारम्भ में प्रयुक्त होता है । इसका उद्देश्य दो कडवकों को जोड़ना होता है । आचार्य हेमचन्द्र (6.1-2) ने 'धुवक' नाम की सार्थकता यह कहते हुए प्रतिपादित की है कि यह संधि के प्रारम्भ में और कडवक के अन्त में निश्चितरूप से रहता है । स्वयम्भू इसके तीन प्रकार बताते हैं - षट्पदी, चतुष्पदी और द्विपदी । आचार्य हेमचन्द्र ने इसका विस्तृत विवेचन किया है और उन लघु चतुष्पदियों तक इसकी सीमा का विस्तार कर दिया है जिनके प्रत्येक चरण में 7 से लेकर 9 मात्राएं तक होती हैं - पचौ ध्रुवकम् अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में एक पंच-मात्रा और एक चतुर्मात्रा के . क्रम से कुल 9 मात्राएं होती हैं, वह ध्रुवक है । स्वयम्भू (8.3) ने भी ध्रुवक चतुष्पदी का लक्षण बताते हुए यही बात कही है। बेण्णिवि चगणाई । ध्रुवए स अलाइं ॥ (8.3) । इसी अध्याय में रचनाकार ने षट्पदी के तीन भेद बताए हैं - षट्पदजाति, उपजाति और अवजाति । इनमें प्रत्येक के आठ भेद होते हैं । षट्पदजाति के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पंचम चरणों में 7 मात्राएँ और तृतीय तथा षष्ठ चरणों में 10 से लेकर 17 तक की मात्राएं होती हैं । इस प्रकार इसके आठ भेद होते हैं। उपजाति के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पंचम चरणों में 8 मात्राएं तथा तृतीय-षष्ठ चरणों में 10 से 17 तक की मात्राएं होती हैं । इस प्रकार इसके भी आठ प्रकार होते हैं । उपजाति के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ तथा पंचम चरणों में 8 मात्राएं तथा तृतीय-षष्ठ चरणों में 10 से 17 तक की मात्राएं होती हैं । इस प्रकार इसके भी आठ प्रकार होते हैं । षट्पदजाति के चतुर्थ प्रकार का उदाहरण स्वयम्भ ने अपने पउमचरिउ (3.3.11) से प्रस्तुत किया है जैसा कि डॉ. भायाणी ने ग्रंथ की भूमिका में स्पष्ट किया है । 'चतुष्पदी द्विपद्यः' अध्याय में अन्तरसम चतुष्पदी और अर्धसम चतुष्पदी को वर्णित किया गया है । इन दोनों में अन्तर यह है कि अन्तरसम में प्रथम-तृतीय चरण तथा द्वितीय-चतुर्थ चरण समान होते हैं किन्त अर्धसम चतष्पदी में प्रथम-द्वितीय एक समान तथा ततीय-चतर्थ समान होते हैं । अपभ्रंश के प्रारम्भ में यह भेद माना जाता होगा किन्तु आगे चलकर यह भेद मिट गया और दोनों प्रकारों को अर्धसम चतुष्पदी ही कहने लगे । स्वयम्भ ने इस ग्रंथ में 110 प्रकार के अन्तरसम चतुष्पदियों का लक्षण-उदाहरण प्रस्तुत किया है । जहाँ तक छन्दों के उदाहरण का सम्बन्ध है । कुछ उदाहरण इन्होंने अपने ग्रंथ 'पउमचरिउ' से दिए हैं और कुछ अपभ्रंश ग्रंथों से । आगे चलकर स्वरचित उदाहरण देने की परम्परा का सूत्रपात हुआ । इस परम्परा का जोरदार रूप पडितराज जगन्नाथ में और हिन्दी के लक्षण ग्रंथों में दिखाई पड़ता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156