Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 67
________________ 58 ( 6 ) इय पुत्त विओय कुढारें फार्डेवि खंड खंडु कि । वही, 9.15 घत्ता अंगारपुर्जे संदिण्णउ लवणु व सय सक्करुहियउ ॥ इस पुत्रवियोग के कुठार ने हृदय को फाड़कर खंड-खंड कर दिया है, और अंगार में डाले हुए लवण के समान शतशः विदीर्ण कर दिया है । 10. खंडय यह 13 मात्रिक सममात्रिक छंद है । अन्त में रगण आना चाहिए । उदाहरण (1) पहु तउ दंसणकारणं लहिवि वियप्पइँ मे मण । तुम्हे समुच्चय चिरभवि कहि मि परिच्चयं ॥ - ज. सा. च., 8.2 आरंभिक प्रभु आपके दर्शनों का हेतु प्राप्त कर मेरे मन में ऐसा विकल्प हुआ है कि आपके साथ कहीं पूर्व भव में विशिष्ट (प्रगाढ़ ) परिचय रहा । (2) सग्गच्चविउ मणोहरे, जायउ एत्थु जि पुरवरे । सो तुहुँ जियसकंदणो, अरुहयासवणिनंदणो ॥ - (3) इय सोऊण मलहरो, बोल्लइ वयण गणहरो । ता वच्चसु सनिहेलण, पुच्छसु पिय मायाजणं ॥ अपभ्रंश भारती-2 - - - वही, 8.5 वही तू स्वर्ग से च्युत होकर इस मनोहर सुन्दर व श्रेष्ठ नगर में अरदास वणिक् का इन्द्र को भी जीतनेवाला पुत्र हुआ है । (4) चरमसरीरहीँ ते मण म करउ किं पि वियप्पणं । आउच्छेप्पिणु परियण सेवसु वच्छ तवोवण ॥ वही, 8.7 रे वत्स ! तुझ चरमशरीरी को अपने मन में कोई विकल्प लाने की आवश्यकता नहीं है, अतः परिजनों से पूछकर तपोवन का सेवन करना । - वही, 8.6 यह सुनकर वे (कर्म) मलनाशक गणधर बोले- 'तो फिर अपने घर जाओ और माता-पिताजनों से पूछो ।' (5) इय संसारे जंपियं, निसणें वि जवणी जंपिय । चउगइ दुक्ख नियामिणा, भणिय जंबूसामिणा ॥ वही, 8.8 इस संसार में जो प्रिय है, जननी के वैसे कथन को सुनकर, चारों गतियों के दुःख का नियमन करनेवाले जंबूस्वामी ने कहा । ( 6 ) ता तहिँ मंडवें थक्कय, दिट्ठ सेट्ठिचउक्कय । तोरणदारपराइया तेहिँ मि ते वि विहाइया ॥ वही, 8.9 तब (इन दोनों पुरुषों ने वहाँ जाकर ) मंडप में बैठे हुए चारों श्रेष्ठियों को देखा, और तोरणद्वार पार करते ही वे दोनों भी उन श्रेष्ठियों के द्वारा देखे गये ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156