Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 61
________________ अपभ्रंश-भारती-2 (5) थिर थक्क पडिच्छइ हत्यिहडा, धावतिहि पडिगयघडहि मडा । वाहंति हणति वाह कुमरा, खणखणखणत करवालकरा ॥ - वही - एक ओर की हस्तिसेना स्थिरतापूर्वक स्थित रहकर, दौड़कर आते हुए शत्रुगजों से झड़प की प्रतीक्षा कर रही थी । खणखण करते हुए करवाल हाथों में लेकर राजकुमार अश्वो को चला रहे थे व (शत्रुसेना के अश्वों को) मार रहे थे । (6) भवयत्तु जटु तुहुँ पवरभुओ, लहुवारउ तहिँ भवएउ हुओ ।। तवचरण करिवि आउसि खइए, उप्पण्ण मरेवि सग्गें तइए ॥ - ज. सा. च., 3.5 - तू जेठा भाई भवदत्त था और तेरा छोटा-भाई उत्तम भुजाओंवाला भवदेव था । तपश्चरण करके आयुष्य क्षय होने पर मरकर तीसरे स्वर्ग में उत्पन्न हुए । 3. पारणक ___ यह 15 मात्रिक छन्द है । पद्धडिया और इसमें अधिक अन्तर नहीं है । केवल अन्त नगण आने पर वह पारणक बन जाता है । सामान्य क्रम 4+4+4+3 । उदाहरण - (1) पणवेप्पिणु संभवसामियहाँ, तइलोक्क-सिहर-पुर-गामियहाँ । पणवेप्पिणु अजिय जिणेसरहों, दुज्जय-कन्दप्प-दप्प-हरहों ॥- पउमचरिउ 71.1 त्रिलोक शिखर पर स्थित मोक्षपुर जानेवाले संभवस्वामी को प्रणाम करता हैं । दुर्जेय काम का दर्प हरनेवाले अजित जिनेश्वर को प्रणाम करता हूँ । (2) पणवेप्पिणु अहिणन्दण-जिणहाँ, कम्मट्ठ-दुट्ठ-रिउ-णिज्जिणहाँ । पणवेप्पिणु सुमइ-तित्थङ्करहाँ, वय-पञ्च-महादुद्धर-धरहाँ ॥ - वही आठ कर्मरूपी दुष्ट शत्रुओं को जीतनेवाले अभिनन्दन जिन को नमस्कार करता हूँ । महाकठिन पाँच महाव्रतों को धारण करनेवाले सुमति तीर्थंकर को प्रणाम करता हूँ । (3) बुहयण सयम्भु पई विण्णवइ, मइँ सरिसउ अण्णु णाहिँ कुकइ । वायरणु कयावि ण जाणियउ, णउ वित्ति सुत्तु वक्खाणियउ ॥ - वही 1.3 - बुधजनो, यह स्वयंभू कवि आप लोगों से निवेदन करता है कि मेरे समान दूसरा कोई कुकवि नहीं है । कभी भी मैंने व्याकरण को न जाना, न ही वृत्तियों और सूत्रों की व्याख्या की । (4) णउ पच्चाहारहाँ तत्ति किय, णउ सधिहें उप्परि बुद्धि थिय । णउ णिसुअउ सत्त विहत्तियउ, छव्विहउ समास-पउत्तियउ ॥ - वही - प्रत्याहारों में भी मैंने संतोष प्राप्त नहीं किया । संधियों के ऊपर मेरी बुद्धि स्थिर नहीं। सात विभक्तियाँ भी नहीं सुनी । छह काल और दस लकार नहीं सुने । (5) वीरहों पय पणविवि मंदमइ, सविणयगिरु जपइ वीरु कइ । । जो परगुणग्रहण कज्जें जियइ, सिविणे वि न दोसु लेसु नियइ ॥-जबुसामिचरित 1.2 वीर भगवान के चरणों को प्रणाम करके मंदमति धीर कवि विनयपूर्वक कहते हैं - जो दूसरों के गुणग्रहण करने के लिए ही जीवित अर्थात् जाग्रत व उद्यत रहता है और स्वप्न में भी लेशमात्र दोष नहीं देखता ।

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