Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती-2
है। परन्तु साहित्य में अन्य छंद अडिल्ला, वदनक, पारणक आदि भी प्रयुक्त हैं । अधिकांशतः चार पद्धडिया मिलकर एक कड़वक का निर्माण करते हैं और कड़वकों का समूह एक सन्धि का । कड़वक के अन्त में ध्रुवक या घत्ता की स्थिति अनिवार्य होती है । एक तरह से, यह कड़वक की समाप्ति का भी सूचक है । मात्राओं के आधार पर इसके अनेक भेद मिलते हैं । मुक्तक-काव्य के लिए दोहा व पद प्रयुक्त हुए ।
अपभ्रंश-काव्य में प्रयुक्त छंदों का परिचय यहाँ प्रस्तुत है - आदि में मात्रिक छंदों का तदुपरान्त वर्णिक छन्दों का और अन्त में घत्ता छन्दों का । मात्रिक
मात्रिक छंद उन छंदों को कहा जाता है जिनमें मात्राओं की संख्या निर्धारित होती है और मात्राओं के आधार पर जिनके लक्षणों को पुष्ट किया जाता है । गुरु की दो व, लघु की एक मात्रा परिगणित की जाती है । इसके भी फिर तीन भेद किये जाते हैं - सममात्रिक, अर्द्धसममात्रिक और विषममात्रिक । 1. पद्धडिया
'पद्धडिया' दो अर्थों को ध्वनित करता है । 'पद्धडिया' एक छन्द-विशेष का नाम भी है और दूसरी ओर एक जाति के साधारणतया सभी छन्दों की सूचक संज्ञा भी, जो सोलह मात्रिक हों और कड़वक के मुख्य छंद के रूप में प्रयुक्त होते हों । संभवतः इसीलिए सोलहमात्रिक चरणोंवाले छंदों से निर्मित काव्य को पद्धडिया-बन्ध कहा जाने लगा। पद्धडिया में सोलह-सोलह मात्रा के चार चरण होते हैं अन्त जगण के साथ । उदाहरण - (1) जसु केवलणाणे जगुगरिटु, करयल-आमलु व असेसदिट्ठ । तहो सम्मइ जिणहों पयारविंद, वदेप्पिणु तह अवर वि जिणिद ॥
- सुदंसणचरिउ - 1.1.11.12 - जिनके केवलज्ञान में यह समस्त महान जगत हस्तामलकवत् दिखाई देता है, ऐसे सन्मति
जिनेन्द्र के चरणारविंदों तथा शेष जिनेन्द्रों की भी वन्दना करके । (2) सुकवि ता हउँ अप्पवीणु, चाउ वि करेमि कि दविण-हीणु ।
सुहडत्तु तह व दुरै णिसिद्ध, विहो वि हउँ जस विलुद्ध ॥- वही 1.2.1-2 सुकवित्व में तो मैं अप्रवीण हूँ और धनहीन होने के कारण मैं त्याग भी क्या कर सकता हूँ ? तथा सुभटत्व तो दूर से ही निषिद्ध है । इस प्रकार साधनहीन होते हुए भी
मुझे यश का लोभ है । (3) जसु रूउ णियंतउ सहसणेत्तु, हुअ विभियमणु णउ तित्ति पत्तु ।
जसु चरणंगु? सेलराइ, टलटलियउ चिरजम्माहिसेइ ॥- वही 1.1.5-6 जिनके रूप को देखते हुये इन्द्र विस्मित मन हो गया और तृप्ति को प्राप्त न हुआ; जिनके
जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से शैलराज सुमेरु भी चलायमान हो गया । (4) ओसरिय सीह जग्गिय फणिद, उद्धसिय झत्ति णहें ससि-दिणिद ।
उत्तसिय ल्हसिय गुरु दिक्करिद, आसकिय विज्जाहर सुरिद ॥- वही 1.1.9-10 सिंह दूर हट गए, फणीन्द्र जाग उठे, आकाश में चन्द्र और सूर्य तत्काल हँस उठे, महान दिग्गज उत्त्रस्त और लज्जित हो गए, विद्याधर और सुरेन्द्र आतकित हुए ।