Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 26
________________ अपभ्रंश - भारती-2 रक्त वर्ण सूर्य ऐसा प्रतीत होता है मानो रति का निलय हो, या पश्चिमाशावधू का कुंकुम तिलक हो, मानो स्वर्ग लक्ष्मी का माणिका ढलक गया हो, या नभ-सरोवर का रक्त कमल गिर पड़ा हो, अथवा जिनके गुणों पर मुग्ध हुए मकरध्वज ने अपना राग-पुंज छोड़ दिया हो, या समुद्र में अर्ध प्रविष्ट सूर्य-मंडल दिग्गज के कुम्भ के समान प्रतीत हो, निज छवि से सागर जल को रंजित करता हुआ सूर्य मानो दिनश्री नारी के पतित गर्भ के समान गोचर हो । रक्तमणि भुवनतल में भटकते-भटकते वास को न पाकर मानो पुनः रत्नाकर की शरण में गया हो, अस्तंगत सूर्य ऐसा जान पड़ता है मानो जल भरती हुई लक्ष्मी का कनकवर्ण कलश छूट कर जल में डूब गया हो । संध्या के राग से रंजित पृथ्वी ने पृथ्वीपति के विवाह पर धारण किया हुआ कुसुंभी रंग मानो अब उतारा हो । कवि ने निम्नलिखित पंक्तियों में प्रकृति और मानव का बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव से वर्णन किया माणव - भवण - भरह- खेत्तोवरि वियरणगमियवासरो । सीयारामलक्खणाणंदु व जामत्थमिओ दिणेसरो ॥20 सीता हरण के अनन्तर सीता राम और लक्ष्मण के आनंद के अस्त हो जाने के समान सूर्य भी अस्त हो गया । मानव जगत् और प्राकृतिक जगत् का बिम्ब- प्रतिबिम्ब रूप से चित्रण निम्नलिखित उद्धरण में बहुत ही रम्य हुआ है । इसमें अस्त होते हुए सूर्य और अस्त होते हुए शूरवीरों का वर्णन करते हुए सायंकाल और युद्धभूमि में साम्य प्रदर्शित किया गया है एतहि रणु कयसूरत्थवणउं एतहि जायउ एत्तहि वीरहं वियलिउ लोहिउ एतहि कालउ गयमय विब्भमु एतहि करिमोत्तियां विहत्तई एतहि जयणरवइजसु धवलउ एतहि जोहविमुक्कई चक्कई कवणु णिसागमु किं किर तहिं रणु सूरत्थवणउ । सोहिउ । तमीतमु । एत्तहि जगु संझारुइ एतहि पसरइ मंदु एतहि उग्गमियई एतहि धावइ ससियर एत्तहि विरहें रडियई चक्कई । एउ ण बुज्झइ जुज्झइ भडयणु 121 17 णक्खत्तई । मेलउ । इधर रणभूमि में सूर - शूरवीरों का अस्त हुआ और उधर सायंकाल सूर-सूर्य का । इधर वीरों का रक्त विगलित हुआ और उधर जगत् संध्या- राग से शोभित हुआ । इधर काला गजों का मद और उधर धीरे-धीरे अंधकार फैला । इधर हाथियों के गंडस्थलों से मोती विकीर्ण हुए और उधर नक्षत्र उदित हुए । इधर विजयी राजा का धवल यश बढ़ा और उधर शुभ्र चन्द्र । इधर योद्धाओं से विमुक्त चक्र और उधर विरह से आक्रन्दन करते हुए चक्रवाक । उभयत्र सादृश्य के कारण योद्धागण निशागम और युद्धभूमि में भेद न कर पाये और युद्ध करते रहे । - इस सायंकाल और युद्धभूमि के साम्य प्रतिपादन द्वारा कवि ने युद्धभूमि में सैनिकों, हाथियों, घोड़ों और अस्त्रों आदि की निविड़ता और तज्जन्य अंधकार सदृश धूलिप्रसार का अंकन भी सफलता के साथ किया है । गंगा का वर्णन 22 करते हुए कवि ने लिखा है मत्स्यरूपी नयनोंवाली, आवर्तरूपी गंभीर नाभिवाली, नवकुसुम - मिश्रित भ्रमररूपी केशपाशवाली, स्नान करते हुए हाथियों के गंडस्थल के समान स्तनवाली, शैवालरूपी नील चंचल नेत्रवाली, तटस्थित वृक्षों से पतित मधुरूपी कुंकुम से पिंग वर्णवाली,

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