Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती-2
चंचल जल-तरंग-रूपी वलिवाली, श्वेत बहते हुए झागरूपी वस्त्रवाली, पवनोद्धत शुभ्र तुषाररूपी हारवाली गंगा सुशोभित होती है ।
कवि पावस के नाद और वर्णजन्य प्रभाव से अधिक प्रभावित हुआ है । पावस का वर्णन आखा में कालिमा और कानों में गर्जन उपस्थित करता है । विष और कालिन्दी के समान कृष्ण मेघों से अन्तरिक्ष व्याप्त हो गया है । गज गंडस्थल से उड़ाए मत्त भ्रमर समूह के समान काले-काले बादल चारों ओर छा रहे हैं । निरन्तर वर्षा धारा से भूतल भर गया है । विद्युत के गिरने के भंयकर शब्द से धुलोक और पृथ्वीलोक का अंतराल भर गया है । नाचते हुए मत्त मयूरों के कलरव से कानन व्याप्त है । गिरि नदी के गुहा-प्रवेश से उत्पन्न सर-सर नाद से भयभीत वानर चिल्ला रहे हैं । आकाश इन्द्रधनुष से अलंकृत मेघरूपी हस्थियों से घिर गया है । बिलों में जलधारा प्रवेश से सर्प क्रुद्ध हो उठे हैं। पी-पी पुकारता हुआ पपीहा जलबिन्दु-याचना करता है। सरोवरों के तटों पर हंस-पक्ति कोलाहल करने लगी । चंपक, चंदन, चिचिणी आदि वृक्षों में प्राण स्फुरित हो उठा ।
शब्द योजना से एक प्रकार की ऐसी ध्वनि निकलती-सी प्रतीत होती है कि बादलों के अनवरत शब्द से आकाश दिन और रात भरा हुआ है और रह-रह कर बिजली की चमक दिखायी दे जाती है । वर्षा की भयंकरता का शब्दों में अभाव है ।
वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कवि ने जहाँ अन्य पदार्थों का अंकन किया है, वहाँ एक ही घत्ता में वसंत के प्रभावातिशय का ऐसा मनोहारी चित्रण किया है, जो लम्बे-लम्बे वर्णनों से भी नहीं हो पाता -
अंकुरियउ कुसुमिउ पल्लविउ महुसमयागमु विलसइ ।
वियसति अचेयण तरु वि जहिं तहिं णरु किं णउ वियसइ ॥4 अंकुरित, कुसुमित, पल्लवित वसंतागम शोभित होता है । जिस समय अल्पचेतन वृक्ष भी विकसित हो जाते हैं, उस समय क्या चेतन नर विकसित न हो ?
प्रकृति को चेतन रूप25 में भी कवि ने लिया है । प्रकृति का परम्परागत वर्णन करता हुआ भी कवि प्रकृति को जीवन से सुसंबद्ध देखता है । अतएव ऐसे दृश्य जो मानव जीवन से संबद्ध हैं कवि की दृष्टि से ओझल नहीं हो पाते ।
इसी प्रकार भविसयत्तकहा26 में 3.24.5 में अरण्य वर्णन, 4.3.1 में गहन वन वर्णन, 4.4.3 में संध्या वर्णन, 8.9.10 में वसंत का बड़ा सजीव व मनोमुग्धकारी वर्णन किया गया है । कवि ने प्रकृति का वर्णन आलंबन रूप में किया है । गहन वन का वर्णन करता हुआ कवि कहता है -
दिसा मंडल जत्थ णाई अलक्खं ।
पहाय पि जाणिज्जइ जम्मि दुक्खं ॥ . वन की गहनता से जहाँ दिशा मंडल अलक्ष्य था । जहाँ यह भी कठिनता से प्रतीत होता था कि यह प्रभात है ।
धवल कवि विरचित हरिवंशपुराण में भी स्थान-स्थान पर प्रकृति-वर्णन मिलता है । कवि ने मधुमास का वर्णन करते हुए लिखा है -