Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती-2
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रात बीत गयी सूर्य उदित हुआ । - - - मंद कातिवाला चन्द्रमा अस्त हो रहा है । कलंकित का उदय क्या स्थिर रह सकता है ? कुमुद मुकुलित हो रहे हैं । मधुकर उन्हें छोड़ कर उड़ रहे हैं - क्या मलिन काले कहीं स्थिर प्रेमी होते हैं ।
पदमकीर्ति रचित 'पासचरिउ'53 के छठी सन्धि में ग्रीष्मकाल और उस काल में जल-क्रीड़ा (6.11), वर्षाकाल (6.12), हेमंतकाल (6.13) आदि के वर्णन सुन्दर हैं । दसवीं संधि में सूर्यास्त (10.9), रजनी (10.10), चन्द्रोदय (10.11) आदि के वर्णन चित्ताकर्षक बन पड़े हैं ।
अद्दहमाण - अब्दुल रहमान कृत 'संदेश रासक:54 में कवि ने विरह वर्णन के प्रसंग में ही षड्-ऋतु वर्णन प्रस्तुत किया है । विरहिणी को विरहताप के कारण ये सब ऋतुएँ दुःखदायिनी और अरुचिकर प्रतीत होती हैं । ग्रीष्म ऋतु में ताप को कम करने के लिए प्रयुक्त चन्दन, कपूर, कमल आदि साधन उसके ताप को और बढ़ाते हैं। वर्षा ऋतु में जल-प्रवाह से सर्वत्र ग्रीष्म का ताप कम हो गया, किन्तु आश्चर्य है कि विरहिणी के हृदय का ताप और भी अधिक बढ़ गया
उल्हविय गिम्हहवी धाराणिवहेण पाउसे पत्ते ।
अच्चरिय मह हियए विरहग्गी तवइ अहिअयर ॥55 शरद ऋतु में नदियों की धारा के साथ-साथ विरहिणी भी क्षीण हो गयी -
झिज्झउँ पहिय जलिहि झिज्झतिहि, खिज्जउँ खज्जोयहिं खज्जतिहि । सारससरसु रसहिं कि सारसि ।
मह चिर जिण्ण दुक्खु किं सारसि ।। कार्तिक में दिवाली आयी । लोगों ने घर सजाये, दीपक जलाये, किन्तु विरहिणी का हृदय उसी प्रकार दुःखी है । शरद् का सारा सौन्दर्य उसके प्रीतम को घर न ला सका । वह आश्चर्यचकित हो कहती है -
कि तहि देसि णहु फुरइ जुन्ह णिसि णिम्मल चंदह, अह कलरउ न कुणति हंस फल सेवि रविदह ।
अह पायउ णहु पढ़इ कोइ सुललिय पुण राइण, • अह पंचमु णहु कुणइ कोइ कावालिय भाइण ।
महमहइ अहव पच्चूसि णहु ओससित्तु घण कुसुमभरु,
अह मुणिउ पहिय । अणरसिउ पिउ सरइ समइ जु न सरइ घरु ।57 क्या उस देश में रात्रि में निर्मल चन्द्रमा की ज्योत्स्ना नहीं स्फुरित होती या कमल के फलों (कमल गट्टा) का सेवन करके हंस कलरव नहीं करते या कोई राग से सुललित प्राकृत नहीं पढ़ता या कोई उस कापालिक के सामने भावपूर्वक पंचम राग नहीं छेड़ता या प्रत्यूष बेला में ओससिक्त घनकुसुमभार महकता नहीं या पथिक । मैं यह मान लूँ कि प्रिय अरसिक हो गया है, जो वह शरद काल में भी घर का स्मरण नहीं करता है ।।
शरद् के अनन्तर हेमन्त ऋतु आती है । चारों ओर शीत के प्रभाव से कोहरा और पाला दिखायी देता है, किन्तु -
जलिउ पहिय ! सव्वंगु विरहहवि तडयडवि, सरपमुक्क कंदप्प दप्पि धणु कडयडवि । त सिज्जहि दुक्खित्त ण आयउ चित्तहरु, पर मंडलु हिउतु कवालिउ खलु सबरु ॥5॥