Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती-2
है। शब्द के रूप और अर्थ में काल और क्षेत्र का प्रभाव पड़ा करता है । कालान्तर में उसके स्वरूप और अर्थ में परिवर्तन हुआ करते हैं । परिवर्तन की इस धारा में प्राचीन अर्थात् अपभ्रंश वाङ्मय में प्रयुक्त शब्दावलि का अपना अर्थ-अभिप्राय विशेष रूप ग्रहण कर लेता है । शब्द का यही विशेष अभिप्राय अथवा अर्थ वस्तुतः उसका पारिभाषिक अर्थ स्थिर करता है ।
शब्द क्या है ? यह जानना भी आवश्यक है । वृहत् हिन्दी शब्दकोशकार ने पृष्ठ 1312 पर शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि आकाश में किसी भी प्रकार से उत्पन्न क्षोभ जो वायु-तरंग द्वारा कानों तक जाकर सुनाई पड़े अथवा पड़ सके वह शब्द कहलाता है । शब्द मूलतया एक शक्ति है। वह ब्रह्म है । परमात्मा है । संसार के सभी रसों का परिपाक शब्दों में समाहित है । उसकी महिमा अपार है । शब्द की साधना से सर्वस्व सध जाता है । साहित्य-शास्त्र में शब्द महिमा का अतिशय उल्लेख मिलता है । शब्द मूलत: एक ध्वनि विशेष है । ध्वनि सामान्यत: दो प्रकार की होती है, यथा - (1) निरर्थक (2) सार्थक । वाद्ययन्त्र (मृदंगादि) से उत्पन्न ध्वनि निरर्थक है और मनुष्य के वाग्यन्त्र से निसृत सार्थक ध्वनि वर्णात्मक ध्वनि कहलाती है । यही वस्तुत: व्याकरण में वह ध्वनि समष्टि है जो एकाकीरूप में अपना अर्थ रखती है। जब शब्द वाक्य के अन्तर्गत प्रयुक्त होकर विभक्त्यन्त रूप धारण करता है तो वह वस्तुत: पद कहलाता है । बालक एक शब्द है और जब वह वाक्य के अन्तर्गत 'बालक: पठति' के रूप में प्रयुक्त होता है तो 'बालक:' पद बन जाता है क्योंकि यह प्रथमा विभक्ति का एक वचन है और व्याकरण के अनुसार सुप् विभक्ति प्रत्यय है । 'पठति' दूसरा पद है क्योंकि इसमें तिङ्प्रत्यय है । आचार्य पाणिनि शब्द में विभक्ति के प्रयोग से पद का निर्माण होना मानते हैं । वह 'अष्टाध्यायी (1/4/14) नामक ग्रंथ में कहते हैं - "सुप्तिङ्तम् पदम् !"
भाषाविज्ञान की दृष्टि से शब्द की मान्यता में कालान्तर में परिवर्तन हुआ करता है । शब्द बड़ा स्थूल है और उसमें व्यजित अर्थ उतना ही सूक्ष्म । यद्यपि सूक्ष्म की अभिव्यक्ति स्थूल के माध्यम से सम्भव नहीं होती तथापि जो प्रयत्न हुए हैं उन्हें सावधानीपूर्वक समझने की सर्वथा अपेक्षा रही है । किसी विशिष्ट शास्त्र में जो शब्द किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होता है अर्थ की दृष्टि में उस शब्द को पारिभाषिक शब्द कहते हैं। डॉक्टर रघुवीर के अनुसार-जिन शब्दों की सीमा बाँध दी जाती है, वे पारिभाषिक शब्द हो जाते हैं और जिनकी सीमा नहीं बाँधी जाती वे साधारण शब्द होते हैं । श्री महेन्द्र चतुर्वेदी पारिभाषिक शब्द के दो प्रमुख गुणों का उल्लेख करते हैं - (1) नियतार्थता (2) परस्पर अपवर्जिता । प्रत्येक पारिभाषिक शब्द का अर्थ नियत- निश्चित होता है जिसमें सुनिश्चित अर्थ को ही व्यक्त किया जाता है । सामान्य शब्द का उद्भव जन-साधारण के बीच होता है और वहाँ स्वीकृत होने के बाद वह अपर बौद्धिकता के स्तर तक उठता है परन्तु पारिभाषिक शब्द का जन्म एक सीमित संकुचित बौद्धिक कर्म की सहमति से और उनके बीच होता है ।
भाषा में पारिभाषिक शब्दों की आवश्यकता सतत बढती रहती है। ज्यों-ज्यों ज्ञान-विज्ञान के चरण आगे बढ़ते हैं उनकी उपलब्धियों को मूर्त बोधगम्य रूप देने के लिए पारिभाषिक शब्दों की आवश्यकता पड़ती है । हमारे ज्ञान की वर्द्धमान परिधि में जो भी वस्तु विचार अथवा व्यापार आ जाते हैं उन्हें हम नाम दे देते हैं । यह प्रक्रिया सामान्य शब्दों के जन्म की प्रक्रिया से भिन्न होती है । पारिभाषिक शब्दावलि बौद्धिक तन्त्र की उपज है और जहाँ तक इस तंत्र की सीमा होती है वहीं तक उसका प्रचार-प्रसार होता है । किसी भी भाषा में समुचित पारिभाषिक शब्दावलि की विद्यमानता उस भाषा-भाषी वर्ग के बौद्धिक उत्कर्ष एवं सम्पन्नता का परिचायक होती है और