Book Title: Apbhramsa Bharti 1992 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
View full book text
________________
अपभ्रंश-भारती-2
29
है । प्रत्येक महीने की प्रकृति का बोध कराती हुई ध्यान भंग होने की आशंका नायिका व्यक्त करती है । व्रती नायक को अपने निश्चय से च्युत करने में असमर्थ नायिका राजमती अन्ततः स्वयं वैराग्य धारण करती है ।
नेमिचतुष्पदिका के इस कथ्य का आदर्श मानकर अनेक बारहमासे रचे गए । इस दृष्टि से जिनधर्म सरि का 'बारहनावउँ उल्लेखनीय प्राचीन कृति है । इसी परम्परा में पाल्हणकृत बारहमासा तथा जिनहर्ष का बारहमासा उल्लेखनीय है ।
हिन्दी में बारहमासा आरम्भ से ही गृहीत हुआ है । 'हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग' नामक स्वकृति में डॉ. नामवरसिंह बारहमासा को हिन्दी की अपनी विशेषता स्वीकारते हैं पर यह मान्यता ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य और प्रामाणिक नहीं है । हिन्दी में यह काव्यरूप अपभ्रंश से अवतरित हुआ है । यहाँ यह काव्यरूप जैन-जैनेतर कवियों द्वारा प्रभूत परिमाण में रचा गया
हिन्दी में बारहमासा प्रत्येक शताब्दि में रचा गया है । पृथ्वीराजरासो में यह काव्यरूप अन्तर्भुक्त रूप में प्रयुक्त है । कबीरदास, नरपतिनाल्ह, गुरु नानक, केशवदास, जायसी, सेनापति, कुतबन मंझन, साधन, नन्ददास, मीराबाई, बरकतुल्ला, चाचा वृन्दावनदास आदि हिन्दी कवियों द्वारा यह काव्यरूप व्यवहृत हुआ है । हिन्दी जैन कवियों द्वारा तो यह काव्यरूप सैकड़ों की संख्या में रचित है । उन्नीसवीं शती के पश्चात् यह काव्य-धारा लोक-साहित्य में प्रवेश कर जाती है।
उपर्यकित विवेचन से यह सहज में प्रमाणित हो जाता है कि काव्य के अनेक अंगों की भाँति काव्यरूप की दृष्टि से भी हिन्दी अपभ्रंश से प्रभावित है । पुराण, कहा, रास, चरिउ, फागु तथा बारहमासा ऐसे कतिपय काव्यरूप हैं जिनका जन्म अपभ्रंश की कोख से हुआ उनका पल्लवन और पोषण भी । ये सभी काव्यरूप अपभ्रंश से हिन्दी को प्राप्त होकर निरन्तर चिरंजीवी रहे