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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
होती है । अत्यधिक स्नान, विलेपन, शृंगारादि करती है तो सन्तान दुराचारिणी होती है । शरीर पर तेलमर्दन करती है तो सन्तान कुष्ठ रोगी होती है। बार-बार नाखून काटती है तो सन्तान असुन्दर होती है। दौड़ने से शिशु चपल प्रकृति वाला होता है। अट्टहास करने से दांत, ओष्ठ, जीभ और तालु कृष्ण वर्ण वाले होते हैं। अत्यधिक बोलने से सन्तान वाचाल होती है। अधिक गायन, वीणादि वादन करने से शिशु बहरा होता है । भूमि–खनन कार्य करने से सिर पर टाट होती है अथवा केश कम होते हैं। पंखे आदि की हवा करने से शिशु उन्मत्त होता है । इस प्रकार मां की सभी क्रियाओं का गर्भस्थ शिशु पर गहरा असर होता है ।
संदर्भः शिशु संरक्षण अध्याय 3
1.
महारानी त्रिशला इन सब बातों की बड़ी सावधानी रखती हुई; न अधिक खट्टा, न मीठा, न कषैला, न चरपरा अपितु सादा भोजन करती हुई, धर्म- जागरणा करती हुई गर्भस्थ शिशु का संरक्षण- संगोपन कर रही हैं । 4
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3.
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कल्पसूत्र; विनयविजयजी कृत सुबोधिका वृत्ति; प्रकाशक जैन आत्मानन्द सभा भावनगर, सन् 1915; पृ. 120
वाग्भट्ट; अष्टांगहृदय, शरीर स्थान 1 / 48, उद्धृत कल्पसूत्र सुबोधिका वृत्ति; वही, पृ. 120
सुश्रुत – उद्धृत कल्पसूत्र सुबोधिका वृत्ति; वही; पृ. 120-121 (क) कल्प सूत्र; सुबोधिका वृत्ति; वही; पृ. 121
(ख) आवश्यक सूत्र; मलयगिरि वृत्ति; वही; पृ. 255