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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 49
__ मुनिराज विधिवत एकान्त स्थान में जाकर, स्थान का प्रतिलेखन कर, कायोत्सर्ग करके यथानुकूल आहार ग्रहण करते हैं। पात्रों को साफ करके पुनः नयसार के समीप पधार जाते हैं।
नयसार स्वयं भक्तिपूर्वक मुनिवरों को मार्ग बतलाने जाता है। मार्ग आने पर कहता है-भगवन्! इस मार्ग से पधार जाना। मुनिवर बड़े आनन्दित होते हुए एक वृक्ष के नीचे विश्राम हेतु एवं नयसार को धर्मोपदेशना देने हेतु बैठते हैं। नयसार भी वहां बैठता है। मुनिराज उपदेश सुनाते हैं। उपदेश सुनकर नयसार अत्यन्त प्रमुदित होता है। धर्म के स्वरूप को समझता है और अपने को धन्य मानता हुआ समकित प्राप्त करता है।
एक ही बार जीवन में धर्मोपदेश श्रवण किया। सुनते ही अप्रतिलब्ध- पूर्व में प्राप्त नहीं की हुई समयक्त्व-रत्न की प्राप्ति हो गयी। बड़ा हर्षित होकर मुनि को वन्दना करता है। मुनिवर चले जाते हैं। नयसार भी यथास्थान जाकर, लकड़ियां लेकर, गाड़े भरकर राजा के पास जाता है। गाड़े खाली कर सब पुन: अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं।
___ नयसार, जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी है, अब निरन्तर धर्म का अभ्यास करता है। धर्माराधना करते हुए अन्तिम बेला में नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करता हुआ मृत्यु को वरण कर प्रथम देवलोक-सौधर्म कल्प में पल्योपम की आयुष्य वाला देव हो जाता है।
दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए, अनेक कर्णप्रिय वाद्यों की ध्वनि में लीन बनते हुए, भव्य नृत्य-नाटकों को देखते हुए नयसार देव अपनी पुण्यवाणी का उपभोग कर रहे हैं। सुख का लम्बा समय भी गगन में उड़ते हुए वायुयान की तरह छोटा प्रतीत होता है। न जाने उन नर्तकियों के पावों की थिरकन, वाद्ययंत्रों की सुमधुर ध्वनियों में कब समय निकल गया? आयुष्य पूर्ण हुआ। पुनः आगमन हुआ मनुष्यलोक
में।
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विनीता नगरी! जो भगवान् ऋषभदेव के लिए देवताओं ने निर्मित की थी। प्रभु ऋषभदेव नाभि राजा एवं मरुदेवी के अंगजात थे। उन्होंने तत्कालीन स्थिति को देखकर युगलिक