Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 246
________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर – 230 देवों द्वारा वस्त्रालंकारों से सुशोभित हुआ। देव पूरे भूमण्डल में प्रसरित होने वाले उत्कृष्ट वाद्यों की ध्वनि सहित नृत्यादिक करने लगे। उस दिव्य ध्वनि को श्रवण कर महारानी मृगावती ने चिन्तन किया कि यह दिव्य ध्वनि देवों द्वारा प्रसारित है, प्रभु ने पारणा कर लिया है। वहीं जाना चाहिए। मृगावती, शतानीक, मंत्री सुगुप्त, मंत्रीपत्नी नन्दा अपने विशाल परिवार सहित वहां आये। इधर सौधर्मपति इन्द्र भी स्वयमेव प्रभु के पारणे पर उपस्थित हुआ। चहुं ओर हर्ष का वातावरण छा गया। जन-जन में सूचना प्रसारित हो गयी कि प्रभु का अभिग्रह पूर्ण हो गया है। यह जानकारी दधिवाहन राजा के संपुल नामक कंचुकी को मिली जिसको चम्पानगरी लूटने पर शतानीक राजा पकड़ कर ले आया था। संपुल भी वहां तुरन्त उपस्थित हुआ और वसुमति (चन्दना) की दयनीय दशा देखकर जोर-जोर से रुदन करने लगा। उसे देखकर वसुमति की आंखों से भी अश्रु छलछला गये। यह कारुणिक दृश्य देखकर राजा शतानीक ने कंचुकी से पूछा-कहो क्या बात है? इस कन्या को देखकर तुम क्यों रुदन कर रहे हो? कंचुकी- महाराज! यह कन्या सामान्य कन्या नहीं है। यह राजा दधिवाहन की पुत्री वसुमति है। इसकी यह दशा! अन्तःपुर में पलने वाली यह कन्या यहां म्लानवदना हो रही है। इसे देखकर मेरा तो दिल ही कांप गया है। यह सुनकर महारानी मृगावती बोली- अरे यह तो मेरी बहिन धारणी की सुता है। यह तो मेरी ही लड़की है। ऐसा कहते हुए चन्दना को गले से लगा लिया। इधर प्रभु महावीर, पारणा करके धनावह सेठ के घर के बाहर पधार गये तब राजा शतानीक धन के लोभ से तुच्छ बना उन स्वर्ण मुद्राओं को लेने के लिए लालायित हुआ। उसी समय शक्रेन्द्र ने राजा से कहा- राजन् यह धन तो वसुमति के अधिकार का है, वह जिसको दे, वही उसका अधिकारी है। तब वैभवासक्त बना चन्दना से पूछता है- चन्दन यह धन किसको दिया जाये। निर्भीक भाव से चन्दना ने कहा- पृथ्वीनाथ! यह धन तो मेरे पालक पिता धनावह को दिया जाना चाहिए, वो ही इसके अधिकारी हैं। यह बात श्रवणकर राजा शतानीक

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