Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 247
________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर 231 ने धनावह से धन ग्रहण करने की बात कही । धनावह ने सारा द्रव्य ग्रहण किया तब सौधर्मपति इन्द्र ने शतानीक राजा से कहा कि राजन् ! यह राजकन्या चरम शरीरी है। यह भागवती दीक्षा लेकर प्रभु महावीर की प्रथम शिष्या बनेगी इसलिए अब इसका रक्षण जब तक प्रभु को केवलज्ञान नहीं हो तब तक आपको करना चाहिए। ऐसा कहकर शक्रेन्द्र स्वस्थान को लौट गया । राजा शतानीक चन्दना को लेकर अन्तःपुर में गया और वहां उसको राजकन्याओ के साथ रख दिया । धनावह सेठ को घर बिलकुल खाली-खाली लग रहा है। चन्दना के चले जाने से मानो घर की सारी खुशियां ही चली गयी हैं । सेठ मूला सेठानी के अनर्थो पर मन ही मन कुढा जा रहा है। उसी समय मूला को देखकर सेठ उसे फटकारता है- अरे अधमा नारी! तूं ने कितने अत्याचार किये। एक सती-सावित्री बालिका के साथ यह घोर अनर्थ करके कितने पापों का उपार्जन कर लिया । तुम जैसी पापिनी का मुंह देखना भी पाप है । चल, निकल जा मेरे घर से। ऐसा कहते-कहते सेठ ने मूला की एक भी बात नहीं सुनते हुए उसे घर से बाहर निकाल दिया" । वह आर्तध्यान करती हुई मृत्यु को प्राप्त हो गयी और मरकर नरक में पैदा हुई" । धनावह सेठ एकान्त उदासीन होकर अपना समययापन करने लगा। प्रभु वहां से विहार करके प्रातःकाल सुमंगल गांव में पधारे। वहां सनत्कुमारेन्द्र ने आकर प्रभु को वन्दन - नमस्कार किया। वहां से विहार करके भगवान सत्क्षेत्र नामक ग्राम में पधारे। वहां महेन्द्र कल्प के इन्द्र ने आकर प्रभु को भक्ति से वन्दन - नमस्कार किया और पुनः लौट गये। वहां से विहार करके प्रभु पालक नामक ग्राम में पधारने लगे। वहां भायल नामक एक वणिक् यात्रा करने हेतु प्रस्थान कर रहा था । उसने प्रभु को सम्मुख आता हुआ देखा और चिन्तन किया कि अरे ! इस भिक्षुक के सामने आने से अपशकुन हो गया है अतः इसको मार डालना चाहिए। ऐसा सोचकर प्रभु को मारने के लिए उसने तलवार निकाली । तब सिद्धार्थ व्यन्तर ने उसकी उद्दण्डता देखकर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला। प्रभु को मारने वाला खुद प्राण त्याग कर

Loading...

Page Navigation
1 ... 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259