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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 70 आर्तध्यान करता हुआ शय्यापालक मृत्यु का वरण कर लेता है। इस कृत्य से वासुदेव ने निकाचित कर्मों का बन्धन किया । तदनन्तर वे वासुदेव आरम्भ परिग्रह में संलिप्त बनकर भोगों का भोग - उपभोग करते हुए, 84 लाख वर्ष तक राज्य का संचालन करते हुए, सातवीं तमस्तम प्रभा नरक के अप्रतिष्ठान नरकावास में नैरयिक रूप में जन्म ग्रहण करते हैं |36 इधर अपने भाई त्रिपृष्ठ वासुदेव का वियोग हुआ देखकर संसार के रिश्ते-नातों को क्षणभंगुर जानकर अचल बलदेव संयम अंगीकार करते हैं और उसी भव में मोक्ष चले जाते हैं । वासुदेव तो पूर्वजन्म में निदानकृत होते हैं और वे मरकर नरक में ही जाते हैं। त्रिपृष्ठ वासुदेव भी अपनी वासुदेव पदवी के कारण नरकगामी बने । सप्तम नरक, महाभयंकर असाता को देने वाला है । भयंकर अन्धकार और एक-दूसरे को मारना, काटना, दुःख देना, पीड़ित करना, यही सब वहां पर होता है । त्रिपृष्ठ वासुदेव का जीव उसी घोर वेदना को वहां पर अनुभव कर रहा है। यह भगवान् महावीर की आत्मा का उन्नीसवां भव था । 37
नारकी का आयुष्य पूर्ण होने पर भगवान् की आत्मा वहां से निकलकर केसरी सिंह रूप में पैदा हुई। वहां से आयु पूर्ण कर चौथी नरक में पुनः नैरयिक रूप में पैदा हुई। यह इक्कीसवां भव था | तब इस चौथी नरक से निकलकर भगवान् महावीर की आत्मा ने अनेक भव तिर्यंच और मनुष्यों के किये । तदनन्तर बाईसवें भव में मनुष्य बने और चक्रवर्ती योग्य शुभ कर्मों का उपार्जन किया। ऐसा आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति और त्रिषष्टिश्लाका पुरुष चारित्र में उल्लेख है, लेकिन यह अंग शास्त्रों के वर्णनानुसार उचित नहीं बैठता क्योंकि समवायांग सूत्र में भगवान् महावीर के महावीर बनने से पूर्व के छह भवों का उल्लेख है। 4° वहां बाईसवां भव चक्रवर्ती का ही बैठता है ।
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यदि बाईसवां भव सामान्य मनुष्य का और तेईसवां भव चक्रवर्ती का मानें तो समवायांग का क्रम नहीं बैठता है । अतः सूत्र - सिद्धान्तानुसार बाईसवां भव चक्रवर्ती का ही मानना उचित है । इस प्रकार समवायांग के अनुसार भगवान् महावीर की आत्मा नरक से निकलकर, अन्य अनेक भव मनुष्य और तिर्यंच के करके अपर विदेह क्षेत्र की मूका नगरी