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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर का अभिषेक किया । वासुदेव का अभिषेक करने हेतु देवता भी अपने-अपने स्थानों से चलकर आये और जो रत्न - वस्तुएं उनसे दूर थी, वह सब त्रिपृष्ठ के पास उपस्थित कीं। इस प्रकार पोतानपुर में तीन खण्ड का राज्य करते हुए त्रिपृष्ठ वासुदेव अपने अद्भुत पराक्रम का परिचय दे रहे थे।
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एक दिन संध्या ढल रही थी । क्षितिज के आर-पार अरुणिम आभा वायुमण्डल में मिलन की प्रतीक बन रही थी । अरुणिमा को दृष्टिगत कर खग - कुल अपने-अपने नीड़ की ओर लौट रहा था । दिनभर परिश्रम के बाद विश्रान्ति समय को प्राप्त कर सभी मन में शांति की लहरों से अनुप्राणित बन रहे थे । वासुदेव त्रिपृष्ठ भी अपने राजभवन में इस आनन्दमयी वेला का आनन्द ले रहे थे ।
इतने में अनुचर आकर महाराज की जय हो ! विदेश से मधुर गायकों की मण्डली आई है। वह आपको अपनी मधुर स्वरलहरियां सुनाना चाहती है।
त्रिपृष्ठ - अच्छा! उन्हें उपस्थित करो ।
अनुचर- गायकों से आपको वासुदेव याद कर रहे हैं। गायक मण्डली, प्रवेश कर- महाराज की जय हो! हम आपको मधुर संगीत सुनाने बहुत दूर से आये हैं ।
त्रिपृष्ठ - अच्छा, सुनाओ।
वासुदेव, गायकों की मधुर स्वरलहरी सुनने उत्सुक बनते हैं। गायक मण्डली बड़ी ही मधुर स्वरलहरियां प्रसरित करती हैं, जो वासुदेव एवं सभी श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध करने लगती हैं । त्रिपृष्ठ मन्त्रमुग्ध बने संगीत में लीन हो जाते हैं । कुछ समय बाद वासुदेव को सुस्ती आने लगती है। वे चिन्तन करते हैं कि अब मेरे निद्रा का समय आ गया है। अभी इस संगीत को बंद करना ठीक नहीं है । तब.. शय्यापालक को आदेश देता हूं।
त्रिपृष्ठ, शय्यापालक से - देखो मुझे निद्रा आ रही है, जब मुझे नींद आ जाये तब तुम संगीत को बंद करवा देना ।
शय्यापालक - जो आज्ञा ।
वासुदेव निद्राधीन हो जाते हैं। शय्यापालक सोचता है, महाराज