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अपश्चिम तीर्थकर महावीर को मार डालूं । इस प्रकार चिन्तन कर मुंह फाड़ता हुआ सिंह त्रिपृष्ठ वासुदेव पर कूद गया। तब त्रिपृष्ठ वासुदेव ने एक हाथ से ऊपर का जबड़ा पकड़ा, दूसरे हाथ से नीचे का और दोनों जबड़े पकड़कर शेर को फाड़ दिया। तत्काल देवताओं ने वासुदेव के ऊपर पुष्प - आभरण बरसाते हुए उद्घोष किया - साधु ! साधु ! 1 उसी समय शरीर के दो टुकड़े हुआ सिंह सोचता है, अहो: ये छोटा कुमार ! इसने मुझे कैसे मार दिया? इस प्रकार ईर्ष्या से स्फुरणा करने लगा ।
उस समय उस वासुदेव का सारथि, जो गौतम गणधर का जीव था, 32 उसने शेर से कहा कि अरे सिंह ! जैसे तूं पशुओं में शेर है वैसे ही वासुदेव पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी है। यदि किसी सामान्य पुरुष द्वारा मृत्यु पाता तब तो और बात थी लेकिन इन महापुरुष द्वारा मारा जाता हुआ, क्यों ग्लान भाव लाता है? सारथि की उस मधुर वाणी को सुनकर सिंह शान्त बन गया और मृत्यु को प्राप्त कर चौथी नरक का नैरयिक बना। उस शेर के चर्म को लेकर त्रिपृष्ठ अपने नगर की ओर रवाना हुए और उन किसानों से कहा- अब मनचाही खेती करो और इच्छा हो जितना चावल उगाओ। यह बात तुम अश्वग्रीव को बता देना कि हमने उपद्रवकारी शेर को मार दिया है। ऐसा कहकर वासुदेव, बलदेव सहित पोतानपुर लौट गया | 33
किसानों ने सिंह मारने का वृत्तान्त राजा अश्वग्रीव से कह दिया । वृत्तान्त श्रवण कर अश्वग्रीव को नैमित्तिक की बात पर अचल विश्वास हो गया कि भविष्य में त्रिपृष्ठ ही मुझे मारने वाला होगा । इसलिए मैं जीवित रहते ही त्रिपृष्ठ को समाप्त कर देता हूं, तो मैं अमर बन सकता हूं। फिर भू-मण्डल पर मुझे कोई मारने वाला नहीं रहेगा । बस, इसी कपोल-कल्पना से राजा अश्वग्रीव ने एक दूत पोतानपुर राजा प्रजापति के पास भेजा और कहलवाया कि प्रजापति! तुम अपने दोनों पुत्रों को मुझे सौंप दो ताकि दोनों को मैं अलग-अलग राज्य का स्वामी बना दूंगा ।
दूत प्रजापति के पास पहुंचा और निवेदन किया- महाराज ! राजन् अश्वग्रीव आपके दोनों पुत्रों को बुला रहे हैं। वे उनको अलग-अलग राज्य का मालिक बनायेंगे। तब प्रजापति ने कहा, पुत्रों की क्या
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