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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 75 वाली। (7) महाकाल निधि- स्वर्ण-रजतादि की खानें उत्पन्न करने वाली। (8) माणवक निधि- अस्त्र-शस्त्रादि एवं युद्ध सम्बन्धी जानकारी देने
वाली। (9) शंख निधि- विविध प्रकार के काव्य, नाटकादि का ज्ञान कराने वाली।
ये भवनिधान गंगा के पश्चिमी तट पर चक्रवर्ती सम्राट को प्राप्त होते हैं। प्रत्येक निधि एक-एक हजार यक्ष से अधिष्ठित होती है। इनका सन्दूक का आकार होता है। नागकुमार इनके अधिष्ठायक देव होते हैं। इनकी ऊँचाई आठ योजन, चौड़ाई नौ योजन तथा लम्बाई बारह योजन होती है।
इन नौ निधान सहित छह खण्ड साधकर प्रियमित्र चक्रवर्ती मूकानगरी आये जहां देवताओं और राजाओं ने मिलकर उनका चक्रवर्ती पद पर अभिषेक किया और बारह वर्ष तक महोत्सव किया। अस्तु चक्रवर्ती प्रियमित्र छह खण्ड का आधिपत्य करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगे।
एक बार मूकानगरी के उद्यान में पोट्टिल नामक आचार्य पधारे। चक्रवर्ती प्रियमित्र स्वयं आचार्य भगवन् की धर्मदेशना सुनने गया। उनसे धर्म श्रवण कर प्रियमित्र को विरक्ति हो गयी। ‘एगोहं नत्थि मे कोई' मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्होंने अपने पुत्र को राज्य का भार सम्हलाकर स्वयं संयम अंगीकार कर लिया। संयम लेकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र से अपनी आत्मा को भावित करने लगे।
यहां पर यह ज्ञातव्य है कि प्रियमित्र चक्रवर्ती के नाम के संबंध में समवायांग सूत्र में दूसरा उल्लेख मिलता है। समवायांग में, भगवान् महावीर ने महावीर बनने से पूर्व छठा भव पोट्टिल का ग्रहण किया है
और उन्होंने दीक्षा लेकर एक करोड़ वर्ष तक श्रमण धर्म का पालन किया है, ऐसा उल्लेख है। पोट्टिल को अभयदेव सूरि ने राजपुत्र स्वीकार किया। इस प्रकार समवायांग में प्रियमित्र के स्थान पर पोट्टिल नाम मिलता है। अतः चाहे पोट्टिल कहें या प्रियमित्र. वे करोड़