Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 208
________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 192 एकविंशति अध्याय साधनाकाल का एकादश वर्ष पारणे के पश्चात् विहार करके भगवान् सानुयष्टिक ग्राम पधारे। वहां प्रभु ने भद्रा प्रतिमा अंगीकार की । चारों दिशाओं में प्रत्येक में चार-चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना भद्रा प्रतिमा है'। उस प्रतिमा में अशनादि का त्याग कर पूर्वाभिमुख रहकर एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करके परिपूर्ण दिवस व्यतीत किया। रात्रि में दक्षिणाभिमुख रहकर सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत की। दूसरे दिन आहारादि का परित्याग कर एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाकर दिनभर विशिष्ट ध्यान-साधना की तथा रात्रि में उत्तराभिमुख होकर त्राटक ध्यानयुक्त सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत की। इस प्रकार बेले के तप से त्राटक ध्यान साधना करते हुए भद्रा प्रतिमा पूर्ण हुई। उस प्रतिमा को पाले बिना प्रभु ने महाभद्र प्रतिमा अंगीकार की। उसमें पूर्वादिक दिशाओं में उसी क्रम से साधना की लेकिन साधना काल दो दिन, दो रात्रि के स्थान पर चार दिन, चार रात्रि रहा। इस प्रकार चार दिन-रात्रि में वह महाभद्र प्रतिमा पूर्ण हुई । तत्पश्चात् तुरन्त ही प्रभु ने सर्वतोभद्रा प्रतिमा अंगीकार की। उस प्रतिमा की आराधना करते हुए दशों दिशाओं में प्रत्येक दिशा में एक - एक अहोरात्र रहे। उसमें ऊर्ध्व दिशा में एवं अधो दिशा में ऊर्ध्व एवं अधो भाग में रहे हुए पुद्गल पर दृष्टि टिकाकर रहे' । इस प्रकार बारह अहोरात्रपर्यन्त सर्वतोभद्र प्रतिमा की आराधना की। यहां आवश्यक नियुक्तिकार के मतानुसार 16 दिन में प्रतिमाओं की आराधना की । तदन्तर पारणे के लिए प्रभु आनन्द नामक गृहस्थ के यहां पर पधारे । वहां बहुला दासी पात्र धो रही थी। उनमें से बहुत - सारा अन्न निकाल करके फेंक रही थी। उसने प्रभु को आते हुए देखा और कहा- क्या यह अन्न आपको लेना कल्पता है? प्रभु ने हाथ फैलाये । वह अन्न उस दासी ने प्रभु को दिया । उसी अन्न से प्रभु का पारणा सम्पन्न हुआ । ऐसी उत्कृष्ट तपश्चर्या और पारणे में ऐसा भोजन, फिर भी परिपूर्ण समभाव। महान आत्मसाधना से अपने मन को वश में करते हुए भगवान साधनाकाल में भीषण कर्मजंजीरें काट रहे थे । देवों ने प्रभु का पारणा होने पर पांच दिव्यों की वर्षा की। वहां के लोग पांच दिव्यों को देखकर,

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