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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 76 वर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन करते हुए, उत्कृष्ट तप करते हुए, एक कम चौरासी लाख का आयुष्य पूर्णकर सहस्रार देवलोक के सर्वार्थ विमान में दिव्य ऋद्धिशाली देव बने ।
समवायांग सूत्र एवं उत्तरपुराणानुसार वे प्रियमित्र श्रमण पर्याय का पालन कर सहस्रार कल्प के सर्वार्थविमान में देव बने। नियुक्तिकार ने कल्प का नाम नहीं देकर केवल सर्वार्थविमान का ही नाम दिया है । मलयगिरि एवं जिनदास महत्तर ने महाशुक्र के ही सर्वार्थविमान का उल्लेख किया है। उस देवलोक में 17 सागरोपम तक दिव्य ऋद्धि का उपभोग करते हुए चौबीसवें भव में भगवान् महावीर की आत्मा वहां से च्यवकर भरत क्षेत्र की छत्रानगरी में जितशत्रु राजा की भद्रा महारानी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुई।
माता-पिता को आनन्दित करने वाला होने से पैदा होने पर राजकुमार का नाम नन्दन रखा गया।
नन्दन राजकुमार राजघराने में क्रमशः पांच धायों द्वारा पालित होता हुआ बड़ा होने लगा। जब राजकुमार नन्दन 64 कलाओं में निष्णात बन गया, राज्यश्री का भार सम्हालने में समर्थ बन गया, तब राजा जितशत्रु नन्दन को राज्यभार देकर स्वयं संसार से विरक्त बनकर दीक्षित हो गये। राजा नन्दन सभी को आनन्दित करते हुए राज्य का भोगोपभोग करने लगे।
एक समय उसी छत्रानगरी में पोट्टिलाचार्य पधारे। सूचना मिलते ही राजा नन्दन स्वयं उनके दर्शन, वंदन एवं प्रवचन श्रवण करने पधारे। प्रवचन श्रवण कर राजा नन्दन को विरक्ति आ गयी। सोचा, 24 लाख वर्ष हो गये गृहस्थ अवस्था में रहते हुए, अब तो मुझे अपना कल्याण करना चाहिए। बस, इसी चिन्तन से उन्होंने अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठाकर पोट्टिलाचार्य के पास संयम ग्रहण कर लिया।
संयम ग्रहण करना सरल है, लेकिन उसका आजीवन निरतिचार पालन सुदुष्कर है। विरले ही भव्य जीव ऐसे होते हैं जो सिंह की तरह संयम लेकर सिंह की तरह ही पालन करते हैं। नन्दन मुनि तो निस्पृह साधक थे। उन्हें अपनी आत्मा कुन्दन की तरह पवित्र बनानी थी। वे