________________
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर
-
47
पूर्वभवों की यात्रा
....
G
अष्टम अध्याय
कुमार वर्धमान क्षत्रियकुण्ड में वृद्धिगत हो रहे हैं। कितना जबरदस्त अतिशय! चौसठ इन्द्र स्वयं कुमार वर्धमान का जन्माभिषेक करने आये। जबरदस्त पुण्य का पुंज हैं कुमार वर्धमान! क्या यह पुण्य एक जन्म में ही संचित है........ एक जन्म की पुण्यवानी से ही वर्धमान बन गये? नहीं नहीं अनेक जन्मों की पुण्य धारा से
आप्लावित हो कुमार वर्धमान इस रूप में आये। अनादि काल से वर्धमान स्वामी की आत्मा भी संसार परिभ्रमण कर रही थी । मिथ्यात्व दशा में लिप्त कुमार वर्धमान की आत्मा ने अनन्त काल व्यतीत कर दिया लेकिन जाग्रत बनने का सुअवसर मिला जयंति नगरी में । जहां से जगकर वर्धमान बनने तक की यात्रा की ।
जयंति नगरी कुमार वर्धमान के कारण विख्यात बन गयी । जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में जयन्ति नामक नगरी थी। वह परिपूर्ण वैभवशाली, सुख-शांति और समृद्धि की कोषरूप थी। वहां का राजा शत्रुमर्दन यथानाम तथागुण - सम्पन्न, महाऋद्धि-सम्पन्न, शत्रुओं के मान का मर्दन करने वाला था । उसमें पृथ्वी प्रतिष्ठित ग्राम था । उस ग्राम में स्वामिभक्त, सदाचारी, गुणग्राही नयसार नामक एक ग्राम-चिन्तक रहता था । '
नयसार का जीवन सादगीपूर्ण एवं भक्ति रंग से ओतप्रोत था । दिल में करुणा की तरंगें सदा प्रवाहित होती रहती थीं । राजा शत्रुमर्दन ने एक बार नयसार को आदेश दिया जंगल में से लकड़ियां लाने का | राजाज्ञा को पाकर नयसार अनेक संगी-साथियों सहित खान-पान की सामग्री लेकर भयंकर अटवी में चला गया । लकड़ियां काटने का काम करने लगा ।
मध्याहन का समय हो गया। सूर्य अपनी तप्त किरणों से पृथ्वी को ताप से उद्विग्न करने लगा। पसीने की बूंदें शरीर को स्नान कराने लगीं। ग्रीष्म के ताप से शरीर उत्तप्त वन गया। पेट में आग कार्य में बाधिका बन रही थी । हाथों ने विराम लेना स्वीकार किया। कार्य छोड़कर विश्राम एवं क्षुधा शान्त करने
1