________________
अपश्चिम तीर्थकर महावीर – 56 यह छठा भव था। उस भव में भी त्रिदण्डी संन्यासी बना । अन्त में 72 लाख पूर्व आयुष्य का क्षय करके सौधर्म देवलोक में मध्यम स्थिति वाला देव बना । यह 27 भवों की गिनती की अपेक्षा से सातवां भव था। यहां यह ज्ञातव्य है कि बीच-बीच में प्रभु महावीर की आत्मा ने अन्य अनेक भव भी किये, लेकिन वे 27 (सत्ताईस) भवों की गिनती में विवक्षित नहीं
देवलोक की दिव्य ऋद्धि का अनुभव करता हुआ, आयुष्य क्षय होने पर वहां से च्यवकर चैत्य नामक स्थान में 64 लाख पूर्व आयुष्य वाला अग्नि-उद्योत नामक ब्राह्मण हुआ। यह आठवां भव था। वहां भी पूर्व की तरह बाद में त्रिदण्डी संन्यासी बना। फिर मृत्यु को प्राप्त कर ईशान देवलोक में मध्यम स्थिति वाला देव बना। यह नौंवा भव था।"
दूसरे ईशान देवलोक में दिव्य सुखों का उपभोग कर, वहां से च्यवकर मन्दिर-सन्निवेश में अग्निभूत नामक ब्राह्मण हुआ। यह दसवां भव था।" इस भव में भी त्रिदण्डी संन्यासी हुआ । अन्त में 56 लाख पूर्व की आयुष्य पूर्ण कर सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में मध्यम आयु वाला देव बना। अनेक प्रकार के विपुल भोगों को भोगता हुआ, आयु क्षय होने पर श्वेताम्बिका नगरी में भारद्वाज नामक ब्राह्मण हुआ । यह बारहवां भव था।19 उस भव में भी त्रिदण्डी होकर चवालीस लाख पूर्व का आयुष्य भोगकर मृत्यु को प्राप्त कर माहेन्द्र कल्प देवलोक में मध्यम स्थिति वाला देव बना। वहां से च्यव कर भव-भ्रमण करके राजगृह नगर में स्थावर नामक ब्राह्मण हुआ। यह भगवान् महावीर की आत्मा का चौदहवां भव था |21 उस भव में भी त्रिदण्डी संन्यासी बना । चौतीस लाख, पूर्व की आयु भोग कर अन्त में ब्रह्मदेवलोक में मध्यम आयु वाला देव बना। यह 15वां भव था ।22 वहां से च्यव कर बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण किया। तदनन्तर विश्वभूति युवराज बना।
उस काल में राजगृह नामक एक नगर था। उस राजगृह नामक नगर में प्रजापालक, प्रजावत्सल विश्वनंदी नामक राजा राज्य करता था। उसके सुकुमार, सुरूप, प्रियंगु नामक पत्नी थी। समय की परिधि ने घर-आंगन को मधुर ध्वनियों से सराबोर कर दिया। महारानी ने एक सुन्दर-सुकुमार बालक को जन्म, दिया जिसका नाम विशाखनन्दी