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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 58
विश्वभूति अन्तेपुर सहित ?
हां।
ओह ! आप राजपुत्र बाहर खड़े हैं। वास्तविक आनन्द तो युवराज - पुत्र ले रहे हैं ।
इतना कहकर दासियां महारानी के महल की ओर चली जाती हैं। रानी के समीप जाकर
रानी साहिबा ! आज कुछ अजीब-सा दृश्य देखा । क्या ? महारानी ने पूछा ।
आज युवराज विश्वभूति तो पुष्पकरंदक उद्यान में अन्तेपुर सहित क्रीड़ा कर रहे थे और विशाखनंदी
वे तो बाहर खड़े चौकीदारी कर रहे थे । हैं! यह क्या कहती है ?
सच कहती हूं रानी साहिबा ! हमने अपनी आंखों से देखा है। अरे! गजब हो गया! महाराज क्या कर रहे हैं? मेरा लाल राजकुमार द्वारपाल बना है......... अभी जाती हूं........... कोपभवन में............... ।
महारानी के मन में ईर्ष्या की आग की चिनगारी सुलग गयी। नारी वह कलाकार है जो जब चाहे वैसा वातावरण बना सकती है। पुरुषों को सेवक बनाकर नचा भी सकती है और स्वयं दासी बनकर समर्पित होने का नाटक भी कर सकती है। महारानी ने मन में पक्का निश्चय कर लिया कि राजा के मन से विश्वभूति कांटे को निकाल फेंकना है।
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चली गई कोप भवन में | बेतार के तार की तरह महाराजा को शीघ्र सूचना मिली कि महारानी कोपभवन में है ।
महाराज तुरन्त कोप भवन की ओर प्रस्थान करते हैं। कोपभवन में जाकर, अरे! महारानी क्या हुआ?
अब फुर्सत मिली है पूछने की ? क्या हुआ ? राजकुमार द्वारपाल की भांति खड़ा रहे और राजउद्यान में विश्वभूति अन्तःपुर सहित क्रीड़ारत रहे, क्या यही शासन-व्यवस्था है? क्या यही राजकुमार का सत्कार है? धिक्कार है, ऐसे राज्य में जीने से........... अभी या तो