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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर के स्थान पर कर्मभूमि क्षेत्र बनाया । व्यापार, कृषि–कर्म, लेखन, युद्ध आदि की विद्याएं जनहित मानकर बताईं । विवाह प्रथा का नवीनीकरण किया । सौ पुत्रों एवं दो पुत्रियों के जन्मदाता बने । कालान्तर में स्वयं दीक्षित हो गये। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत नवनिधि एवं चतुर्दश रत्नों के स्वामी, इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट बने ।
उन्हीं चक्रवर्ती सम्राट के घर-आंगन में एक नन्हा सा शिशु किलकारियां करने लगा । वह अपने शरीर से निकलने वाली किरणों से सबका ध्यानाकर्षण करने लगा। इसी विशेषता से इस बालक का नाम पड़ गया ‘मरीचि’!° यह मरीचि का जीव, वही नयसार की आत्मा थी, जो देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर पुनः 'मरीचि' के रूप में अवतरित हुई । राजघराने के विलासमय, सुख-सुविधापूर्ण माहौल में मरीचि बड़ा होने लगा । शनैः-शनैः यौवनप्राप्त मरीचि राजभवनों में सुखपूर्वक समययापन करता है....... एक दिन बैठा था महल के गवाक्ष में। नगर में कोलाहल व्याप्त था। सोचा- आज क्या बात है ? कोई उत्सव है? महोत्सव है ? बहुत लोग इधर-उधर गमनागमन कर रहे हैं। सेवक से । आज नगर में क्या बात है ? लोग कहां जा रहे हैं?
पूछा
आपके पितामह ऋषभदेव भगवान, जिन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई है, आज उनका प्रथम समवसरण होगा। सब लोग उनके दर्शन, वन्दन, प्रवचन- श्रवण करने जा रहे हैं ।
तब तो पिताजी भी जायेंगे
?
हां, उनका रथ तैयार हो रहा है।
और
......
:....... 'दादीजी'
?
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....
वे भी जायेंगी ।
तो मैं भला पीछे क्यों रहूं? मैं भी जाऊँगा । रथ तैयार करो । रथ में बैठकर पिता भरत के साथ समवसरण में पहुंचे। प्रथम प्रवचन श्रवण किया। विरक्ति आ गई । घर आया मरीचि पिता से बोला- मैं भी दीक्षा लूंगा ।
दीक्षा ? दीक्षा चने चबाने के समान दुष्कर है।
कोई सरल काम नहीं । लोहे के