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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 33
तदनन्तर दक्षिण-दिशा के रुचक पर्वत पर निवास करने वाली 25. समाहारा, 26. सुप्रदत्ता, 27. सुप्रबुद्धा, 28. यशोधरा, 29. लक्ष्मीवती, 30. शेषवती, 31. चित्रगुप्ता, 32 वसुन्धरा ये आठों दिशाकुमारियां स्नान के लिए जलभरे कलश लाती हैं ।
तत्पश्चात् पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत पर निवास करने वाली 33. इलादेवी, 34. सुरादेवी, 35. पृथिवी, 36. पद्मावती, 37. एकानासा, 38. नवमिका, 39. भद्रा, 40. शीता ये आठ दिशाकुमारियाँ पंखा लेकर मन्द-मन्द समीर से भगवान् के शरीर को आंदोलित करती हैं।
तत्पश्चात् रुचक पर्वत के उत्तर दिशा में निवास करने वाली 41. अलंबुसा, 42. मिश्र केशी, 43. पुंडरीका, 44. वारुणी, 45. हासा, 46. सर्वप्रभा, 47. श्री, 48. ही ये आठ दिशाकुमारियां उत्तर में खड़ी रहकर श्रेष्ठ चामरों से भगवान् के शरीर को बींजती हैं ।
फिर रुचक पर्वत की विदिशाओं में रहने वाली 49. चित्रा, 50. चित्रकनका, 51. शतेरा, 52. सौदामिनी ये चारों दिशाकुमारियां दीपक लेकर विदिशाओं में खड़ी रहकर मंगल गीत गाती हैं। 53. रूपा, 54. रूपासिका, 55. सुरूपा, 56. रूपकावती ये चारों दिशाकुमारियां आकर भगवान् की नाल को चार अंगुल छोड़कर काटती हैं। तदनन्तर उस नाल को जमीन में खड्डा खोदकर गाड़ देती हैं। उस गड्ढे को हीरक, रत्नों से भरकर ऊपर मिट्टी जमाकर, हरी दूर्वा उगा देती हैं। फिर विकुर्वणा द्वारा तीन कदलीगृह बनाती हैं। उनमें भवन बनाती हैं। फिर तीन सिंहासन बनाती हैं। तीर्थंकर भगवान् एवं मां त्रिशला को हाथों में उठाकर, दक्षिण दिशावर्ती कदलीगृह (केले के पत्तों के घर) में लाती हैं। दोनों को सिंहासन पर बिठाकर सहस्रपाक, शतपाक तेल से मालिश करती हैं, उबटन द्वारा पीठी करती हैं, तत्पश्चात् पूर्व दिशावर्ती कदलीगृह में तीर्थंकर भगवान् एवं माता को हाथों में उठाकर लाती हैं। सिंहासन पर बिठाती हैं- सुगन्धित जल द्वारा स्नान करवाकर दिव्य वस्त्रालंकारों से विभूषित करती हैं। तदनन्तर उत्तर दिशावर्ती कदलीगृह में दोनों को ले जाती है, सिंहासन पर बिठाती हैं। आभियोगिक देवों से चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्ष चंदन मंगवाती हैं। फिर अग्नि