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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर 36 गये । पालक देव को बुलाओ। "जो आज्ञा', कहकर सेवक देव पालक को बुलाते हैं। पालक - महाराज की जय हो। आपकी क्या आज्ञा है ? “तीर्थंकर भगवान् का जन्मोत्सव मनाने के लिए भरत क्षेत्र में क्षत्रियकुण्ड चलना है, विमान तैयार करो। "
सेवक- “जो आज्ञा " कहकर प्रस्थान कर देता है। निमार्ण करना है! श्रेष्ठ विमान का निर्माण। अभी करता हूं। मध्य में प्रेक्षामण्डल, उसके मध्य मणिपीठिका, उसके ऊपर शक्रेन्द महाराज के लिए विशाल सिंहासन |
सिंहासन के वायव्य कोण में, उत्तर में एवं उत्तर - पूर्व ईशान कोण में शक्रेन्द के 84,000 (चौरासी हजार) सामानिक देवों के 84,000 (चोरासी हजार) उत्तम आसन । पूर्व में आठ अग्रमहिषियों के आठ उत्तम आसन, दक्षिण-पूर्व आग्नेय कोण में आभ्यन्तर परिषद् के 12,000 देवों के 12,000 आसन, दक्षिण में मध्यम परिषद् के 14,000 देवों के 14,000 आसन, दक्षिण-पश्चिम नैऋत्य कोण में बाह्य परिषद् के 16,000 देवों के 16,000 आसन, पश्चिम में सात सेनापित देवों के सात आसन । सिंहासन के चारों ओर चारों दिशाओं के 84-84 हजार अंगरक्षक देवों के 84,000x4 तीन लाख छत्तीस हजार उत्तम आसन बनाने हैं। ऐसा चिन्तन कर, चिन्तन - अनुरूप विकुर्वणा करके विमान तैयार करता है । विमान तैयार होने पर शक्रेन्द के पास जाकरमहाराज की जय हो । विमान तैयार है ।
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अच्छा! दिव्य-वस्त्रालंकार धारण करता हूं, यह चिन्तन कर शक्रेन्द महाराज, जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख जाने योग्य दिव्य वस्त्रालंकारयुक्त रूप की विकुर्वणा कर सपरिवार विमान पर आरूढ़ होते हैं। स्वयं सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठते हैं। अन्य देव-देवियां अपने-अपने आसनों पर बैठती हैं । तदनन्तर आठ मंगल द्रव्य आगे चलते हैं। तत्पश्चात् शुभ शकुनरूप में जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चवरयुक्त दिव्य छत्र, दिव्य पताका, अत्यन्त उच्च विजय - वैजयन्ती पताका आगे चलती है । तदनन्तर छत्र, अत्यन्त दर्शनीय निर्जल झारी, अत्यन्त सचिक्कण, अतिशययुक्त पंचरंगी हजार छोटी पताकाओं से अलंकृत विजय-वैजयंती ध्वजा, तदनन्तर छत्रात्रिछत्र से सुशोभित एक