________________
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर – 35
पुनः सिंहासन पर आरूढ़ होकर - "तीर्थंकर भगवन्तों का जन्म-महोत्सव मनाना जीताचार (परम्परागत आचार) है। शीघ्र ही मुझे __ वहां समुपस्थित होना है। यों चिन्तन कर आदेश के शब्दों में
हरिणगमैषी देव को बुलाओ। "जो आज्ञा महाराज की।" हरिणगमैषी देव पहुंचकर-महाराज की जय हो।।
तुम जाओ, सभी देव-देवियों को सूचित करो "तीर्थंकर" भगवान् महावीर का जन्म-महोत्सव मनाने जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र के क्षत्रियकुण्ड नगर में जा रहे हैं। अतः हे देवानुप्रियो! आप सभी अपनी ऋद्धिसहित दिव्य वस्त्राभरणों से सुसज्जित होकर, नाट्यादि सामग्री सहित सपरिवार अपने-अपने विमानों पर आरूढ़ होकर शक्रेन्द्र के सम्मुख उपस्थित हों। ऐसा शक्रेन्द्र ने कहा।
सेवक- “जो आज्ञा' कहकर प्रस्थान करता है।
तीन बार सुघोषा घन्टा बजाता है। तब सौधर्मकल्प में एक कम बत्तीस लाख विमानों में एक कम बत्तीस लाख घण्टाएँ एक साथ तुमुल शब्द करने लगती हैं, समूचा वायुमण्डल घण्टाओं की अनुगूंज से परिव्याप्त हो जाता है। ध्वनिमय वातावरण में रति-सुख में समासक्त देव-देवियां सावधान हो जाती हैं। आज कोई नवीन उद्घोषणा होने वाली है, यों चिन्तन कर सब एकाग्रचित्त हो जाते हैं। सावधान होते हैं, सुनने को लालायित बन जाते हैं।
ध्वनि धीरे-धीरे मन्द हो रही है। वातावरण शांत बन गया है। ध्वनि के शांत होने पर हरिणगमैषी देव उद्घोषणा कर रहे हैं, "देवराज देवेन्द्र जम्बू द्वीप में भगवान् महावीर का जन्मोत्सव मनाने जा रहे हैं। आप सभी अपनी-अपनी ऋद्धिसहित समुपस्थित हो जायें।"
घोषणा श्रवण कर सर्वत्र हर्ष की लहरें तरंगायित बन गयीं। चलो भगवान् को वन्दन करने चलते हैं, पूजन करने चलते हैं। जीताचार होने से चलते हैं। इस प्रकार देव-देवियां आपस में चलने के लिए तत्पर होते हैं। अपनी दिव्य ऋद्धि सहित वे त्वरित गति से शक्रेन्द्र के पास उपस्थित होते हैं।
शक्रेन्द सभी देव-देवियों को समागत देखकर- अरे सभी आ