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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 38 पर भगवान् को अपने हाथों में लिए शक्रेन्द्र चिन्तन करते हैं- कितना सुकोमल शरीर है। नन्हा-सा शरीर! कितने कमनीय लग रहे हैं। इनका चौसठ इन्द्र अभिषेक करेंगे। प्रत्येक 8064 कलशों से स्नान करायेंगे। कैसे सहन कर पायेंगे? कहीं कष्ट तो नहीं होगा! तब .... .......... क्या करना चाहिए? शक्रेन्द्र चिन्ताग्रस्त हुए। भगवान् ने अवधिज्ञान से शक्रेन्द्र की मनोगत शंका को जान लिया। तब अपने बायें पैर के अंगूठे से सुमेरु को दबाया, एक लाख योजन का सुमेरु पर्वत का शिखर बेंत की तरह कम्पायमान् हो गया।
शक्रेन्द्र ने देखा- मेरु शिखर कम्पित हो रहा है, क्या बात है? अपने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया, ज्ञात हुआ। ओह! यह प्रभु के अनन्त बल की माया है। भगवान् तो अनन्त बलशाली हैं। उनके विषय में भ्रान्त धारणा पैदा हो गयी। तब नतमस्तक होकर क्षमायाचना करता हूं| यह चिन्तन शक्रेन्द्र द्वारा प्रभु से क्षमायाचना का प्रसंग उपस्थित करता है। शक्रेन्द्र प्रभुसहित मेरु पर उपस्थित हैं। इधर ईशानेन्द्रादि सभी कल्पों के देवों के आसन चलायमान होने पर वे भी अपनी ऋद्धिपरिवारसहित मेरु पर्वत पर उपस्थित हो गये हैं। इसी प्रकार असुरेन्द्र आदि सभी भवनपति ज्योतिष्क एवं वाणव्यन्तर देव भी मेरु पर अवतरित हो चुके हैं। सभी चौसठ इन्द्र अपनी ऋद्धि- परिवारसहित मेरु पर्वत पर महोत्सव मनाने की तैयारी कर रहे हैं।
सर्वप्रथम अच्युतेन्द्र बारहवें स्वर्ग का स्वामी, आभियोगिक देवों को बुलाकर, "देवानुप्रियो! मणि रत्नादियुक्त, बहुमूल्य विराट् उत्सवयोग्य तीर्थंकर भगवान् के अभिषेक के लिए विपुल अनुकूल सामग्री लाओ।" आभियोगिक देव हर्षित होकर- "जो आज्ञा' कहकर ईशान कोण में प्रस्थान करते हैं। वहां वैक्रियलब्धि से (1) एक हजार आठ स्वर्ण कलश, (2) एक हजार आठ चांदी के कलश, (3) एक हजार आठ मणिमय कलश, (4) एक हजार आठ सोने-चांदी के कलश, (5) एक हजार स्वर्ण-मणि के कलश, (6) एक हजार आठ सोने, चांदी, मणिया के कलश, (7) एक हजार आठ मिट्टी के कलश, (8) 1008 चंदन-चर्चित कलश बनाते हैं। इसी प्रकार एक हजार आठ झारियां, दर्पण, थाल, रकेबियां, प्रसाधन मंजूषा, विविध रत्न मंजूषा, करवे, फूलों की टोकरिया,