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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर
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मातृ - प्रेम - चतुर्थ अध्याय
सम्राट
शान्त, प्रशान्त, नीरव वातावरण में क्षत्रियकुण्ड के भव्य प्रासाद में चिन्तन निमग्न राजा सिद्धार्थ परम प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। अतीत के ख्वाबों में खोये नृपति सिद्धार्थ के स्मृति - पटल पर स्वप्नपाठकों के वाक्य निरन्तर उभर रहे हैं। भावी सन्तान चक्रवर्ती या तीर्थंकर होगा। पुण्यप्रतापी वह लाल कुल - गौरव में चार चांद लगायेगा । यशः श्री की भी अभिवृद्धि करेगा । अरे वृद्धि वह तो अभी भी हो रही है। जब से कुमार त्रिशला की कुक्षि में आया, धन-धान्य की वृद्धि हो रही है । भण्डार भर रहे हैं । राज्यकोष परिपूर्ण यौवन में प्रवर्धमान है। राज्य की सुन्दर व्यवस्थाओं में निरन्तर उन्नति परिलक्षित हो रही है। ऐसा लग रहा है, देवों द्वारा राज्यवृद्धि का कार्य निष्पन्न हो रहा है। ऐसी वृद्धि की पुण्य आभा लेकर अवतरित कुमार का नाम .......... वर्धमान ही रखना चाहिए'। वह वर्धमान कितना चित्ताकर्षक होगा। अभी से उसे देखने के लिए नेत्र लालायित हैं। न वात्सल्य की लहरों से वीचिमान है। वह दिन धन्य होगा जब मैं गोद में उस नवजात शिशु को पारिजात पुष्प की तरह परिनल कर आनन्द से भर जाऊँगा ।
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हा! हा! हा! इन शब्दों को श्रवण कर, लहों से द अरे क्या बात है ? कौन रुदन कर रही है? हृष्टा पर्न साहि जोर से आर्तध्यान कर रही हैं।
क्यों क्या हुआ? कहकर सम्राट ति
के कक्ष में पहुंचे।
अरे! यह क्या हुआ ? रानीसितकरी
पंखे से मन्द मन्द हवा करती हुई
कुछ होश में आकर
इट, छ
महारानी ? नृपति ने पूछा ।
बालक उदर में आ
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राजन्! भयंकर असुन = =
एवं हिलना-डुलन
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हुन्
महारानी
करती हैं.