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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर
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सिंहासन पर बैठकर राज्यकार्य का संचालन करूँ, श्रेष्ठ हस्ती पर आरूढ़ होकर उद्यान में विहरण करूँ ।
ये सब दोहद राजा सिद्धार्थ ने यथासमय पूर्ण किये। लेकिन महारानी को एक विशिष्ट दोहद उत्पन्न हुआ कि शची ( इन्द्राणी) के कानों से चमकते चपल कुण्डलों को छीन कर धारण करूँ। यह दोहद पूर्ण होना संभव नहीं था लेकिन तीर्थकरों का अद्भुत अतिशय होता है । शक्रेन्द्र ने उसी समय अवधिज्ञान से उस दोहद को पूर्ण करने का निश्चय किया। स्वयं शक्रेन्द्र देवलोक से चलकर भूमण्डल पर आये । एक किला बनाया और राजा सिद्धार्थ को युद्ध के लिए आमन्त्रित किया । राजा सिद्धार्थ युद्ध हेतु प्रस्थान करते हैं । शक्रेन्द्र के साथ सिद्धार्थ का युद्ध होता है, स्वयं शक्रेन्द्र पराजित होता है और इन्द्राणी के कुण्डल छीनकर महाराजा रानी त्रिशला को पहना देते हैं । दोहद पूर्ण होने से रानी त्रिशला अत्यन्त आनन्दित होती है और राजमहलों में प्रसन्नतापूर्वक समययापन करती है।'
संदर्भ: मातृप्रेम अध्याय 4
1. (क) आवश्यक सूत्र; मलयगिरि वृत्तिः पूर्वभाग; वही; पृ. 255 (ख) कल्पसूत्र; सुखबोधिका टीका; उपाध्याय श्री विनयविजयजी; सन् 1908; मुद्रक - जामनगर, जैन भास्करोदय प्रिंटिंग प्रेस; पृ.
245-47
(क) आवश्यक सूत्र; मलयगिरिः पूर्वभाग; वही; पृ. 255-56 (ख) कल्पसूत्र; सुखवोधिका टीका; वही; पृ. 247-53 तत्त्वार्थ सूत्र; आचार्य उमास्वाति; अध्ययन 2; सूत्र 52 (क) आवश्यक सूत्र: मलयगिरि वृत्ति; वही; पृ. 254-55 (ख) कल्प सूत्र; सुखबोधिका टीका; वही; पृ. 254-255 (क) कल्पसूत्र; सुखबोधिका टीका; वही; पृ. 255-57 (ख) आवश्यक भाष्य गाथा 58-59
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तिहिं नाणेहिं समग्गो, देवितिसलाए सोय कुच्छिंसि । अह वसह सन्निगभो, छमासे अद्धमासं च ।
अह सत्तमम्मि मासे, गव्भत्थो चेवऽभिग्गहं गेहे ।
नाहं समणो होहं, अम्मापियरंमि जोवंतो"