Book Title: Anusandhan 2003 07 SrNo 25
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 24
________________ September-2003 19 कठिन अने दुर्बोध छे तेम मानवू पडे तेम छे. _ ग्रन्थकार आ. मुनीश्वरसूरि छे तेवू प्रारम्भे आवता पांचमा पद्य परथी प्रतीत थाय छे. ते श्लोक प्रमाणे, "मुनीश्वरसूरिए मुनिहर्ष मुनिने आ हस्तबाण-(हाथवगुं बाण ?) आपेल छे", अने ते पण कोई "तार्किकोनी पर्षदामां जवानो सुयोग आवी लाग्यो हशे ते वखते", एवो अर्थ नीकळी शके छे. ग्रन्थकारना सत्ताकाळ विष के अन्य कशी माहिती सांपडती नथी. मात्र आदर्श प्रतिना मथाळे 'नमः श्रीजिनराजसूरिभ्यः' एम लखेलुं छे, तेना आधारे ग्रन्थकार जिनराजसूरिना शिष्य के तेमनी परंपराना साधु होय तेम मानी शकाय. जिनराजसूरि खरतरगच्छना पंदरमा शतकमां थयेला एक प्रमुख आचार्य छे. तेमना शिष्यनी आ रचना पंदरमा शतकनी होवानुं अनुमान थाय छे. The New Catalogus catalogorum (Vol. 13, p. 46) (1991 A.D. Madras) मां आ विषे एटलो ज उल्लेख छे के "प्रमाणसार - Jain. by munisvarasuri" उपरांत, तेमां मुनि पुण्यविजयजीना संग्रहनी सं. अने प्रा. प्रतिओना सूचिपत्र (अमदावाद १९६३) नो हवालो आपवामां आव्यो छे. मुनीश्वरसूरिना शिष्य मुनिहर्ष मुनिए कातन्त्र व्याकरण पर 'कातन्त्रदीपक' नामे विवरण लख्यु होवानी तथा ते अपूर्णप्राय मळतुं होवानी माहिती जयपुरस्थित विद्वान् म.श्रीविनयसागर तरफथी सांपडी छे, जे मुनिहर्ष मुनिनी संप्रज्ञतानो ख्याल आपी जाय छे. आ ग्रन्थनी बे प्रति मळी छे. एक, भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभास्थित श्री भक्तिविजयजी शास्त्रसंग्रहनी प्रति, जेनो क्रमांक ८८८ छे, अने ९ पानांनी प्रति छे. तेमां प्रान्तभागे 'स्वोपज्ञः प्रथमादर्शः' लखेल छे, ते परथी आ प्रति ग्रन्थकारे स्वयं प्रथम प्रतिलिपि तरीके लखी होवानी छाप पडे छे.प्रतना दिव्य अक्षरो तथा लेखशैली पण, प्रति पंदरमा सैकानी होय तेवू अनुमान करवा प्रेरे तेवी छे. मात्र एक ज प्रश्न छे के जो कर्ताए स्वहस्ते लखेल होय तो आटली बधी अशुद्ध केम ? केटलीक तो महत्त्वनी क्षतिओ जोवा मळे छे, जे टिप्पणीरूपे नोंधेला थोडाक पाठान्तरो जोतां जणाई आवे छे. __आनी बीजी प्रति लींबडीना जैन ज्ञानभण्डारनी छे, जे अपूर्ण छे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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