Book Title: Anusandhan 2003 07 SrNo 25
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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September-2003
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इम कहेती राजुल भली रे, जायें रैवत आप. नेम वांदी भक्तिस्युं रे, पामें मुगति ते थाप.
इति श्रीनेमिजिनस्तवनं ॥२२॥
प०७आ०
(वीरजिणंद जगत उपगारी-ए देशी) पास जिणेसर तुं जगनायक, तुझ सम अवर न कोयजी. संकटचूरण आशापूरण, नामें नवनिधि होयजी.
१ पा० कर्म पसाई नरभव पाम्यो, कागताल न्याई हुं देवजी. जिम भूख्यो पंचामृतनें, तिम वांछु हुं ताहरी सेवजी. २ पा० यथाप्रकारे सेव न जाणुं, जिम कहे प्राचीन शिष्ठजी. वांको चूको पिण घेउनो मांडो, सहुने लागें मन मिष्टजी. ३ पा० गुणी थइने सेवाइं राजी, काहा कुण गाम ए नीतिजी. शुद्ध मणि उपरि नवि चालें, मणिकना यत्ननी रीतिजी. पिण जगतारक नाम छे ताहुरूं, मुज तारें तो प्रमाणजी. सम विषमें वरसें जगहेतें, मेघ न मागे दाणजी. वेधक जाणने चित्तनी वातो, मुखथी कही न जायजी. अंगित आकारें विधक वेधे, अंतर दूरे थायजी. ६ पा० तुम समो जाण अवर न पेखुं, सी कउ काफी वातजी. कृपा करीने बोधी दीजें, वाचक मुगतिने महंतजी. ७ पा०
इति श्रीपार्श्वजिनस्तवनं ॥२३॥
४ पा०
५ पा०
(इणि अवसर तिहां-ब- रे-ए देशी) वीर जिणेसर देवनी रे, सेवा करूं एक चित्त रे. वालेसर. अहवो एके को नहीं हो लाल, दुसमसमयनी कालमां रे, राखे जिम नीर रे वा० दास पोतानो जाणी करी हो लाल.
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