Book Title: Anusandhan 2003 07 SrNo 25
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 75
________________ 70 - रोस तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पइ नाहीं दूक - रे तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस वडे फकीर निरंजन साध तुं हउ नित जोग चित लायो खूदासुं नाहीं दूनी काम भोग । हम जानत नीं कइंसा तुम्ह आचार साही सभा सुणत हई प्रसंसा वारवार हम बहुत खूसी हइ देखीत तुम्ह दीदार सुखिई आए पइंडइ सुखी सहु तुम पीर वार । तिहां श्रीआचारजि धर्मदेसन दीध भविकजन केरा मनवंछित सहु सिध अकबर केरा मनवंछित सहु सिध ते कहुं हुं कीनी परिइ कहता नावइ पार । ए गुरु दरिसणि थइं दूरी मिटिउ दुखदाह कीउ जेणे श्रावक मलेच्छ मुगल पतिसाह ॥१००॥ 11211 Jain Education International ॥२॥ For Private & Personal Use Only अनुसंधान-२५ ॥३॥ दुहा ॥ खुसी हुउ दिलीधणी, खुसी हुआ गुरुराज । उद्योत हुआ जग जइनकु, सिधां मनवंछित का ||४|| चालि ॥ मनवंछित काज समारी, हरखिउ हीय हीरपटोधारी । सीख साही पासि तिहां मागई, बहु नुबति नींकी बाजइ ॥५॥ उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ । दीजइ हीर- चीर पटकूल, गंठउडा चूरी बहुमूल रूपानाणइ दुजणसाह, प्रभावना मांडिउ प्रवाह । ध्यन दिवस गिणुं ते लेखइ, एहवा आनंद ते देखइ दुहा ॥ पणइ अवरि वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उग्गइ भाण 11211 ॥६॥ 11611 www.jainelibrary.org

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