Book Title: Anusandhan 2003 07 SrNo 25
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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September-2003
माखी त्यजइ जीउ अप्पणपु, पणि देवइ परदुख । दुरजन दहई मन अप्पणां, देखि परायां सुख
चालि ॥
ब्राह्मणे जाई चूगली कीधी, मूकी मइदा माली] दीधी । साही जाकुं बहुत तुम्ह मानु, कीछू उहांकी करणी जानु ||१०|| मानत नाही सूरज गंगा, उर श्रीपरमेसर चंगा | नाही दंडवरतकी वात, पापी चूगले घाली घात दूहा ॥ दुर्जन कर तन वेवही, सनमुख लेत संताप । गुरुड बरावरि किउं होवइ, जुरे भलेरा साप
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॥११॥
चालि ॥
जेसंगजी साही हजूर, आवइ वली चढतइ नूरि । एक सीह नइ पाषर घाली, किउं डरइ हिरणकी फाली सूभट सूणी रणतूर, किउं झाल्या रहइं तिहां सूर । दुसमन जे विसिमसि करता, फिरता साकीदा ते कीआ जिउं आटा माहे लूंण, तुझ विण समझावत कुंण । वाद हुउ साही हजूर, जिता श्रीविजयसेनसूरि
॥ १४॥
॥१५॥
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॥१२॥
ब्राह्मणकी करइ लोक हासी, बोल बोल्या किउं न विमासी । हुआ ते हाकावीका, पडीआ दुसमन सहु फीका एक एककुं इउं समझावई, अपनु कीउ सहु कोए पावइ ||१७||
॥१६॥
॥
जय जय वाद वरी तिहां, श्रीगुरु मन उल्हासि । श्रीसंघ अतिआग्रह थकी, लाहोरि करई चउमासि शेषजी श्रीगुरुकुं कहई, भल सिष्य तु हीरा भाण । मलेच्छ करें डेकाविली, सो किआ चतुर सुजाण
71
॥ १८॥
॥१९॥
॥१३॥
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