Book Title: Anusandhan 2003 07 SrNo 25
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
॥१॥
॥४॥
64
अनुसंधान-२५ ज, अधूरो मळवानो खेद छे. कोईने पण आनी अन्य प्रति क्यांयथी जडी आवे तो जाण करवा तथा उपलब्ध कराववा नम्र विनति छे.
श्रीलाभोदयरास ॥ पं. श्रीकल्याणकुशलगुरुभ्यो नमः ॥
सरसति मति अतिनिरमली, आपु करी पसाय । जेसंगजी गुण गावतां, अविहड वर दे तु माय नडोलाई नगरी भली, धन्य धन्य श्रीओसवंस । साह कर्माकुलि चंदलु, सुर नर करइं प्रसंस ना।। धन कोडमदे जनमिउ, तपगछनऊ सुलतान । अधिक अधिक तेजिई सदा, वाधइ जुगहप्रधान ॥३॥ जस मुख सारद चंदलु, जीह अमीनु घोल । दंतपंति हीरा जिसी, अधर सो कुंकुमारोल अति अणीआली आंखडी, वांकी भमह कमान । सरल सकोमल नासिका, मोहे भविक सुजान ॥५॥ गजगति चालिई चालतु, सकल कलागुण पूर । गौतमसम गुरु जगि जायो, जास अनोपम नूर श्री गुरु हीर सदा जयो, तास तणु ए सीस । रास रचुं रलीआमणु, प्रणमी जिन चउवीस
चुपई ॥ विनय विवेक विचार सुजाति, कहीइ देस चतुर गूजराति । तिहां राधनपुर नयर प्रसिध, लोक वसई पुन्यवंत समरिध ॥८॥ तिहां गुरु गुणवंत करई चुमास, पुरइं भविजन केरी आस । श्रीगुरु हीर जेसंगजी वली, एक दुधमाहे साकर भली ॥९॥ तिउं सोहइं गुरु-गुरुनी जोडि, मंगल महानंद पूरइ कोडि । उच्छव आनंद तिम उद्योत, श्रीगुरुतेजे सुखी सहु लोक ॥१०॥
॥६॥
॥७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116