Book Title: Anekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ अनेकान्त / ९ ऐतिहासिक दृष्टि से भी आचार्य श्री अमृतचन्द्र शंकराचार्य के बाद मे हुए उस समय में सम्भवत अद्वैतवाद का प्रचण्ड प्रचार था और 'अद्वैतवाद ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या' की उक्ति सर्वत्र बहुचर्चित थी । हमारी दृष्टि में आचार्य अमृतचन्द्र ने उस उक्ति को आत्मसात् करते हुए ब्रह्म के स्थान पर आत्मा तथा व्यवहार को लोकव्यवहार रूप माया मानते हुए मिथ्या प्ररूपित किया हो तथा शंकराचार्य का जो 'अध्यास' मिथ्या है उसी का अनुसरण करते हुए व्यवहार नय को मिथ्या निरुपित कर दिया । यह भी स्मरणीय है कि उक्त काल जिन - शासन के लिए संक्रमणकाल का दौर था और ऐसे समय मे जिन - शासन की रक्षा का श्रेय आ. श्री अमृतचन्द्र को ही जाता है। हालांकि इससे व्यवहार - चारित्र ही हानि भी हुई। परन्तु आज गणतन्त्र के युग में न तो तत्कालीन परिस्थितियां है और न ही वाद-विवाद शास्त्रार्थ की जय-पराजय दृष्टि । अतः अनेक नयों की अलग अलग निरुक्तियां करने की आवश्यकता नही है । आश्चर्य है कि कब और कैसे यह प्रचलित हो गया कि आगम के नय अलग होते हैं और अध्यात्म के नय दूसरे । अध्यात्म आगम से बहिर्भूत नही हो सकता और न ही इस दृष्टि को मान्य ही किया जा सकता है कि आगमिक नय अध्यात्म मे व्यवहृत नहीं होते या आध्यात्मिक नय आगमिक नही होते । अन्तत. आचार्य अमृतचन्द्र की अद्वैतानुसारिणी टीका को पढ़कर आ. कुन्दकुन्द पर शंकराचार्य का प्रभाव मानते हुए इस निष्कर्ष को बल देने की प्रवृत्ति बढ़ी है कि वे शंकराचार्य के समकालीन या बाद के आचार्य है जबकि गाथाओ मे कहीं भी शंकर के अद्वैतवाद का प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। यह निर्विवाद सिद्ध है कि आचार्यकुन्दकुन्द श्रुतकेवली के साक्षात् शिष्य थे। जैसाकि निम्नस्पष्ट है वारस अंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउल वित्थरणं । सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरु भयवओ जयओ । विपुल विस्तार वाले बारह अंग और चौदह पूर्व ज्ञान के बोधक / निश्चायक गुरु श्रुतज्ञानी भगवान भद्रबाहु जयवन्त हों । अस्तु, उक्त गाथा के 'ववहारो भूदत्थो' जिसका अर्थ व्यवहार भूतार्थ है जिनोपदिष्ट तथा वस्तु के अश को ग्रहण करने वाला नय मानते हुए तथा आगमिक नयानुसार वस्तुतत्व का चिन्तन एवं ज्ञान करते हुए स्वपरकल्याणोन्मुख हों । यही भावना भाता हूं। ३७, राजपुर रोड, दिल्ली- ११००५४

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