Book Title: Anekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ अनेकान्त/८ उस प्रकार आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने प्राकृत पदों का प्रयोग अपनी टीका मे नही किया है। अत स्पष्ट है कि आत्मख्याति टीका का आधार गाथा की सस्कृतछाया मात्र ही था। उक्त गाथा का छन्दशास्त्र की दृष्टि से विचार करते हुए यह कहा जाता है कि प्रथम पाद मे अक्षर अधिक होने के कारण 'अ' का पूर्वरूप मानते हुए 'अभूतार्थ' अर्थ मान्य किया जा रहा है, परन्तु यह उचित प्रतीत नही होता। मूलग्रन्थ कर्ता छन्दभग के दोष की निवृत्ति ववहार अभूदत्थो/ववहाराभूदत्थो पद देकर कर सकते थे परन्तु ऐसा नही किया। जिससे आचार्य श्री अमृतचन्द्र के अभिप्राय की पुष्टि नही होता यत मूल आचार्य को ‘ववहारो भूदत्थो' पाठ ही इष्ट था। अभूदत्थो नही। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि समयपाहुड़ के उत्थानिका के प्रकरण मे उक्त गाथा है और उत्थानिका की गाथाये हमेशा ग्रन्थ के हार्द का सक्षेप मे स्पष्ट संकेत करने वाली होती है जिसका विस्तार सम्पूर्ण ग्रन्थ मे होता है। प्रकृत गाथा के भूदत्थो पद का सस्कृत भाषा के अनुसार सत्यार्थ अर्थ भी किया जाता है। जबकि समय पाहुड़ के कर्ता को सत्यार्थ अर्थ इष्ट नहीं है यदि उन्हे 'सत्य' अर्थ इष्ट होता तो स्पष्ट अर्थ के द्योतक गाथा पाठ 'ववहारो सच्चत्त्थो' दे सकते थे, परन्तु उन्होने ऐसा नही किया। उन्हे तो 'भूदत्थो' ही इष्ट था जिसका सकेत आगमिक और जिनोपदिष्ट नय की ओर है। नय जिनवचन रूप होते है और नित्य सत्य होते है जैसा कि निम्नाकित गाथा से सपष्ट है। जिणवयण णिच्चसच्चा सव्वणया पर वियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।। - -कषायपाहुड़, भाग १ पृ २५७ जिनोपदिष्ट सभी नय अपने-अपने विषय का कथन करने से समीचीन है और नित्य सत्य और दूसरे नयो का विचार करने मे मोहित है और अन्य नयो के बारे मे मौन है, वे उसके मित्र है विरोधी या झूठे नही। अनेकान्त रूप समय (आगम) के ज्ञातापुरुष यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है। ऐसा विभेद नहीं करते हैं। अत व्यवहार नय भूतार्थ है जिसका अर्थ है कि व्यवहार जिनोपदिष्ट है और वस्तु के अश को ग्रहण करने वाला नय है तथा अन्य नयों की सापेक्षता से प्रमाण की ओर ले जाने वाला है।

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