Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 7
________________ श्रद्धा सुमन श्रद्धा सुमन की कलम लेकर मैं भक्ति का लिखू दर्पण । कविता की पलन्द्रियों में गण सौरभ का गठन कर ।। भव्य भ्रमर से गुजित और, सिद्धजन से परिसेवित । मां बिजयमती का गुण चित्राङ्कन शिष्यों को मनभावक हो ।।१।। गुण रत्न की प्राभा से विलसित, मुक्ति पथ दिग्दर्शक हो । वैराग्य भाव की परिपोषक, संसार भ्रमण की रोधक हो ।। चिद् विलास की परमहंस, समता गागर रत्नाकर हो । मैं अल्प चुद्धि क्या गुण गाऊँ,तुम भव्य जन उद्धारक ॥२॥ ध्यान विभाकर, कृपासुधाकर, धर्म ध्वज उन्नायक हो। पार्षमार्ग की परिरक्षक, तुम अनेकान्त प्रचारक हो । तुम स्वाद्वाद की उत्थापक, अनुयोग चार दर्शावत हो। कर्म शत्र को विफलकार, वैराग्य कवच पहनावत हो ॥३॥ प्रथमानयोग में रचपचकर भव्य जनो ! जीना सीखो। चरणानुयोग का सुख नित्र ले, कर्म भूमि का भेद करो । करणानुयोग की तह में घुसकर, कर्मशत्र की खोज करो। ज्ञान वैराग्य का दिव्य शस्त्र ले. मोह शत्रु पर विजय करो ||४|| भव्य भवन द्रव्यानुयोग में प्रमुदित हो विश्राम करो। अविरत और मव्याबाघ प्रतीन्द्रिय सुख का पान करो।। हे वीर भट ! को के क्षय से दुःख का निर्मलन होता है। शाश्वत सुख की यदि कामना तो वराग्यकवच पहनो ॥५॥ कर्मों के जय से आत्म प्रभा प्रगटाना अपना लक्ष्य रखो । "जयप्रभा" गुरु चरणों में जी, सुख प्रभात को प्राप्त करो ।। निवेदिका क्षु० १०५ जयप्रभा संघस्थ श्री १०५ ग. प्रा. विजयामती माताजी XI

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