Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 18
________________ प्रतिपादन में मानसिक उच्चावचता मेरे कहीं वाधक नहीं बनी, ऐसी मेरी अपनी अनुभूति है। भाषा एवं लिपि का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। अतः एक पूरा अध्याय लिपि-कला के उद्भव और विकास पर ही लिखा गया है। शिलालेखों व स्तम्भ-लेखों की प्राकृत पर विचार करते एक स्वतंत्र अध्याय में शिलालेखों व स्तम्भों का भी पूरा लेखा-जोखा दे दिया गया है । भद्रबाहु प्रथम, द्वितीय, चन्द्रगुप्त प्रथम, द्वितीय, यापनीय संघ, श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा के स्फुट धारणा-भेद आदि नाना विषय आपातत: चचित कर दिये गये हैं ताकि विवाद-संकुल बातें भी समीक्षात्मक रूप से स्पष्ट हो सकें। कुल मिलाकर मेरा यही अभिप्राय रहा है कि ग्रन्थ विद्वद्-भोग्य होने के साथ जन-भोग्य भी बन सके। दुरूह विषय भी पाठकों के सरलता व सरसता से समझ में आ सके । प्रस्तुत दूसरे खण्ड का लेखन वि० संवत् २०३० के मेरे चूरू चातुर्मास में हुआ। उस समय मेरे अनन्य सहयोगी मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' व 'द्वितीय' दोनों में से कोई भी मेरे पास नहीं थे। 'प्रथम' कलकत्ता में थे तथा द्वितीय' प्राचार्य श्री के साथ दिल्ली में । आवश्यकता प्राविष्कार की जननी होती हैं। संयोगतः साहित्य प्रेमी व समाजसेवी श्री सोहनलालजी हीरावत ने डा० छगनलाल शास्त्री को आमंत्रित कर लिया। वे २-३ महीने मेरे पास रहे। उनका श्लाघनीय योगदान मेरे साहित्य-अनुसन्धान कार्य में रहा । कुल २-३ वर्षों में मेरा लेखन-कार्य सम्पन्न हो गया। सम्पादन की दृस्टि से सारी लेख-सामग्री मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' के पास क्रमश: कलकत्ता व बनारस जाती रही। मेरे अभिनिष्क्रिमण से पूर्व ही सम्पादन कार्य भी लगभग सम्पन्न हो गया। ग्रन्थ का प्रथम खण्ड वि० संवत् २०२६ में प्रकाशित हो गया था। दूसरा खण्ड अब वि० संवत् २०३९ में प्रकाशित हो रहा है। इतने लम्वे अन्तराल के अनेक कारण हैं । वि० संवत् २०२७ में हम लोग दिल्ली प्रा गये। वहां लगातार ३ वर्ष भगवान् महावीर की २५०० वीं निर्वाण जयन्ती, रायपुर व चुरू के अग्नि-परीक्षा-प्रकरण आदि कार्यों में इतने व्यस्त रहे कि दूसरा खण्ड प्रारम्भ करने की बात मैं सोच ही नहीं सकता था। तदनन्तर चुरू चातुर्मास तथा उसके अगले वर्ष शादुलपुर चातुर्मास में लेखन-कार्य प्रायशः सम्पन्न हो गया। मेरे जीवन में लगभग यह क्रम रहा है-राजधानियों के प्रवास में जन-सम्पर्क व जन-हित और गांवों व कस्बों के प्रवास में स्वान्तः सुखाय साहित्य-साधना। इसी वर्ष संवत् २०३१ में मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' का बनारस में अभिनिष्क्रमण हो चुका था। कई वर्षों से चला आ रहा सामाजिक संघर्ष पूर्णतः ज्वार पर प्रा गया। सारी स्थितियां संदिग्ध हो गई। उस संदिग्ध स्थिति में ग्रन्थ का प्रकाशन संभव भी नहीं था और मैं चाहता भी नहीं था। उक्त घटना-प्रसंग के दो वर्ष पश्चातू ही मेरा Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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