Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 11
________________ वेषमुक्त श्रमण को दिये जाने वाले प्रायश्चित्तों में छेदप्रायश्चित्त अंतिम प्रायश्चित्त है। इसके साथ पूर्व के छह प्रायश्चित्त ग्रहण कर लिये जाते हैं। मूलाह, अनवस्थाप्याई और पारिञ्चिकाई प्रायश्चित्त वाले अल्प होते हैं। आलोचनाह से छेदाह पर्यन्त प्रायश्चित्त वाले अधिक होते हैं। इसलिये उनकी अधिकता से सहस्राम्रवन नाम के समान दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदसा) बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आगमों को छेदसूत्र कहा जाता है। छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है कि साधनामय जीवन में यदि साधक के द्वारा कोई दोष हो जाये कैसे बचा जाये, उसका परिमार्जन कैसे किया जाये, यह छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय है। इस दृष्टि से छेदसूत्रों के विषयों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है - 1. उत्सर्गमार्ग, 2. अपवादमार्ग, 3. दोषसेवन, 4 प्रायश्चित्तविधान / 1. जिन नियमों का पालन करना साधु-साध्वीवर्ग के लिये अनिवार्य है। बिना किसी होनाधिकता, परिवर्तन के समान रूप से जिस समाचारी का पालन करना अवश्यंभावी है और इसका प्रामाणिकता से पालन करना उत्सर्गमार्ग है। निर्दोष चारित्र की प्राराधना करना इस मार्ग की विशेषता है। इसके पालन करने से साधक में अप्रमत्तता बनी रहती है तथा इस मार्ग का अनुसरण करने वाला साधक प्रशंसनीय एवं श्रद्धेय बनता है। 2. अपवाद का अर्थ है विशेषविधि / वह दो प्रकार की है--(१) निर्दोष विशेषविधि और (2) सदोष विशेषविधि / सामान्यविधि से विशेषविधि बलवान होती है। आपवादिक विधि सकारण होती है। उत्तरगुणप्रत्याख्यान में जो प्रागार रखे जाते हैं, वे सब निर्दोष अपवाद हैं। जिस क्रिया, प्रवत्ति से प्राज्ञा का अतिक्रमण न होता हो, वह निर्दोष है, परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर जिस दोष का सेवन करना पड़ता है या किया जाये, वह सदोष अपवाद है / प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है। यह मार्ग साधक को प्रार्त-रौद्र ध्यान से बचाता है। यह मार्ग प्रशंसनीय तो नहीं है किन्तु इतना निन्दनीय भी नहीं कि लोकापवाद का कारण बन जाये। अनाचार तो किसी भी रूप में अपवादविधि का अंग नहीं बनाया या माना जा सकता है। स्वेच्छा और स्वच्छन्दता से स्वैराचार में प्रवृत होना, मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए अपने स्वार्थ, मान-अभिमान को सर्वोपरि स्थापित करना, संघ की अवहेलना करना, उद्दण्डता का प्रदर्शन करना, अनुशासन भंग करना अनाचार है। यह अकल्पनीय है, किन्तु अनाचारी कल्पनीय बनाने की युक्ति-प्रयुक्तियों का सहारा लेता है। ऐसा व्यक्ति, साधक किसी भी प्रकार की विधि से शुद्ध नहीं हो सकता है और न शुद्धि के योग्य पात्र है। 3, ४-दोष का अर्थ है उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का भंग करना और उस भंग के शुद्धिकरण के लिये की जाने वाली विधि, प्रायश्चित कहलाती है। प्रबलकारण के होने पर अनिच्छा से, विस्मृति और प्रमादवश जो दोष सेवन हो जाता है, उसकी शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त से शुद्ध होना, यही छेदसूत्रों के वर्णन की सामान्य रूपरेखा है। प्रायश्चित को अनिवार्यता दोषशुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है, उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है। इसी संदर्भ में यहाँ कुछ विशेष संकेत करते हैं। [10] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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