Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 19
________________ जिनप्रभ ने 'वायणाविही' की उत्थानिका में जो वाक्य दिया है, उसमें भी उपांग विभाग का उल्लेख हुआ है। पं. बेचरदासजी दोशी का अभिमत है कि चूर्णि साहित्य में 'उपांग' शब्द आया है। वह शब्द कहाँ-कहाँ आया है ? यह अन्वेषणीय है (क)। प्राचीन वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी अंग और उपांग ग्रन्थों की कल्पना की गई है। वेदों के गम्भीर रहस्य को वेदांगों में स्पष्ट किया गया है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष ये छह अंग हैं और उनकी व्याख्या करने वाले ग्रन्थ उपांग माने गये हैं (ख)। वेदों के चार उपांग माने गये हैं—पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र (ग)। चारों वेदों के समकक्ष चार उपवेदों की भी कल्पना की गई है, जो आयुर्वेद, गान्धर्ववेद, धनुर्वेद और अर्थशास्त्र के रूप में प्रसिद्ध हैं । वेदों के अंग और उपांग की कल्पना जो है, उसकी सार्थकता समझ में आती है कि उनके बिना याज्ञिक रूप से क्रियान्विति सम्भव नहीं है। अतः उनका अध्ययन आवश्यक माना, पर दार्शनिक दृष्टिं से उपवेदों की कल्पना क्यों की गई ? यह स्पष्ट नहीं है। जैसे-सामवेद का सम्बन्ध गान्धर्ववेद से जोड़ा जा सकता है, वैसे अन्य वेदों की भी अन्य उपवेदों से संगति बिठाना असम्भव तो नहीं है। पर वह केवल तर्क-कौशल ही है, वाद-नैपुण्य की परिसीमा में आता है। उपसर्ग के साथ निष्पन्न शब्दों में पूरकता का विशिष्ट गुण होना चाहिए। उसका उसमें अभाव है। उदाहरण के रूप में जैसे—गान्धर्व उपवेद सामवेद से निकला हुआ या उससे विकसित शास्त्र सम्भव है पर वह सामवेद का पूरक कैसे ? उसके अभाव में सामवेद अपूर्ण है, यह कैसे कहा जा सकता है ? सामवेद और गान्धर्व उपवेदों की तो कुछ संगति बिठाई जा सकती है पर अन्य वेदों के साथ वह सम्भव नहीं है। यदि ऐसा किया भी गया तो वह सीधा समाधान नहीं है। सम्भव है धनर्वेद प्रभति लौकिक शास्त्रों का मल उद्गम स्रोत वेद हैं, यह बताने के लिए ही यह उपक्रम किया गया हो। अस्तु। ___ अंगों का उल्लेख जिस प्रकार प्राचीन आगम ग्रन्थों में हुआ है और उनकी संख्या बारह बताई है, वहाँ बारह उपांगों का उल्लेख नहीं हुआ है। नन्दीसूत्र में भी कालिक और उत्कालिक के रूप में उपांगों का उल्लेख है पर बारह उपांगों के रूप में नहीं। बारह उपांगों का उल्लेख बारहवीं शताब्दी से पहले के ग्रन्थों में नहीं है। यह निर्विवाद है कि अंगों के रचयिता गणधर हैं और उपांगों के रचयिता विभिन्न स्थविर हैं । इसलिए अंग और उपाङ्ग का परस्पर एक-दूसरे का कोई सम्बन्ध नहीं है। तथापि आचार्यों ने प्रत्येक अंग का एक उपांग माना है। आचार्य अभयदेव ने औपपातिक को आचारांग का उपांग माना है। आचार्य मलयगिरि ने राजप्रश्नीय को सूत्रकृतांग का उपांग माना है पर गहराई से अनुचिन्तन करने पर जीवाभिगम और स्थानांग का, सूर्यप्रज्ञप्ति और भगवती का, चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा उपासकदशांग का, वण्हिदसा और दृष्टिवाद का पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। इस क्रम के पीछे उस युग की क्या परिस्थितियां थीं, यह शोधार्थियों के लिए अन्वेषणीय है। सम्भव है, जब आगम-पुरुष की कमनीय कल्पना की गई, जहाँ उसके अंग स्थानीय आगमों की परिकल्पना और अंग सूत्रों की तत्स्थानिक प्रतिष्ठापना का प्रश्न आया, तब यह क्रम बिठाया गया हो। ८. एवं कप्पतिप्पाइविहि पुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गन्थ नन्दि-अणुओगदार-उत्तरज्झयण-इसिभासिय अंग-उवांग-पइण्णय-छेयग्गन्थआगमेवाइज्जा। - वायणाविहि पृ. ६४ जैन सा.वृ.इ. प्रस्तावना, पृ. ४०-४१ ९. (क) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१ - जैनश्रुत पृ. ३० ९. (ख) छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषाययनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥ शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात् सांगमधीत्यैवं, ब्रह्मलोके महीयते ॥ - पाणिनीय शिक्षा, ४१-४२ ९. (ग) पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांगमिश्रिता : । . वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ - याज्ञवल्क्य स्मृति, १-३ [१६]

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