Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ( 20 ) उसे कर्मवाद में भी विश्वास रखना ही होगा। और जो कर्मवाद को स्वीकार करता है उसे परलोकवाद भी स्वीकार करना ही होगा / और जो परलोकवाद को स्वीकार कर लेता है, उसे स्वर्ग और मोक्ष पर भी विश्वास करना ही होता है। इस प्रकार भारतीय-दर्शनों के सर्वमान्य सिद्धान्त ये चार ही रहे हैं। इन चारों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा विचार नहीं है, जो इन चारों में न आ जाता हो। फिर भी यदि हम प्रमाण-मीमांसा को लें, तो वह भी भारतीय-दर्शन का एक अविभाज्य अंग रही है। प्रत्येक दर्शन की शाखा ने प्रमाण की व्याख्या की है, और उसके भेद एवं उपभेदों की विचारणा की है। फिर आचार-शास्त्र को भी यदि लिया जाये, तो प्रत्येक भारतीय दर्शन की शाखा का अपना एक आचार-शास्त्र रहा है। इस आचार-शास्त्र को हम उस दर्शन का साधना पक्ष भी कह सकते हैं। प्रत्येक दर्शन-परम्परा अपनी पद्वति से अपने द्वारा प्रतिपादित तत्व-ज्ञान को जब जीवन में उतारने का प्रयत्न करती है, तब उसे साधना कहा जाता है। यह साधना-पक्ष भी प्रत्येक भारतीय-दर्शन का अपना एक विशिष्ट ध्येय रहा है। यह स्वाभाविक है, कि मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन से असन्तोष हो। जीवन में प्रतीत होने वाले प्रतिकूल भाव, दुःख एवं क्लेशों से व्याकुल होकर मनुष्य इनसे छुटकारा प्राप्त करने की बात सोचे / भारत के प्रत्येक दर्शन ने फिर भले ही वह किसी भी परम्परा का क्यों न रहा हो, वर्तमान जीवन को दुःखमय एवं क्लेशमय माना है। इसका अर्थ यही होता है कि जीवन में जो कुछ दुःख एवं क्लेश हैं, उसे दूर करने का प्रयत्न किया जाये। क्योंकि दुःख-निवृत्ति और सुख-प्राप्ति प्रत्येक आत्मा का साहजिक अधिकार है। भारत के इस दृष्टिकोण को लेकर पाश्चात्य दार्शनिकों ने उसे निराशावादी अथवा पलायनवादी कहा है / परन्तु उन लोगों का यह कथन न तर्क-पंगत है, और न भारतीय-दर्शन की मर्यादा के अनुकूल ही / भारतीय दर्शनों में त्याग और वैराग्य की जो चर्चा की गई है, उसका अर्थ जीवन से पराङ्मुख बनना नहीं है, बल्कि वर्तमान जीवन के असन्तोष के कारण चित्त में जो एक व्याकूलता रहती है, उसे दूर करने के लिये ही भारतीय दार्शनिकों ने त्याग और वैराग्य की बात कही है। यह दुःखवादी विचारधारा बौद्ध-दर्शन में अतिरेक वादी बन गयी है। उसे किसी अंश में स्वीकार करना ही होगा। जैन-दर्शन भी इस दुःखवादी परम्परा में सम्मिलित रहा है / सांख्य-दर्शन ने प्रारम्भ में ही इस तथ्य को स्वीकार किया है कि तीन प्रकार के दुःख से व्याकुल यह आत्मा सुख और शान्ति की खोज करना चाहती है। इस प्रकार भारतीय दर्शनों में दु.खवादी विचारधारा रही है। इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। परन्तु इसका अर्थ निराशावाद और पलायनवाद कतई नहीं किया जा सकता। एक मात्र सुख का अनुसंधान ही उसका मुख्य उद्देश्य रहा है। भारतीय-दर्शनों में आत्मबाद : भारत के सभी दर्शन आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। न्याय और वैशेषिक आत्मा को अविनश्वर और नित्य पदार्थ मानते हैं। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न सुख, दुःख और ज्ञान को उसके विशेष गुण मानते हैं। आत्मा ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्प आत्मा के धर्म हैं / चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। मीमांसा दर्शन का भी यही मत है। मीमांसा आत्मा को नित्य और विभु मानती है / चैतन्य को उसका आगन्तुक धर्म मानती है। स्वप्न रहित निद्रा की तथा मोक्ष की अवस्था में आत्मा चैतन्य गुणों से रहित होती है। सांख्य दर्शन में पुरुष को नित्य और विभु तथा चैतन्य स्वरूप माना गया है / इस दर्शन के अनुसार चैतन्य आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है / पुरुष अकर्ता है / वह सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित है। बुद्धि कर्ता है, और सुख एवं दु:ख के गुणों से युक्त है। बुद्धि प्रकृति का परिणाम है, और प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है / इसके विपरीत पुरुष शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। अद्वैत वेदान्त आत्मा को विशुद्ध सचित्त और आनन्द स्वरूप मानता है। सांख्य अनेक पुरुषों को मानता है, लेकिन ईश्वर को नहीं मानता / अद्वैत वेदान्त केवल एक ही आत्मा को सत्य मानता है। चार्वाक दर्शन आत्मा की सत्ता को नहीं मानता। वह चैतन्य विशिष्ट शरीर को ही आत्मा मानता है। बौद्ध-दर्शन आत्मा को ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों की प्रत्येक क्षण में परिवर्तन होने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org