________________ श्रीमती राजुलदेवी [3 कि मार्गमें बहुतसे पशुओंको एक बाड़ेमें धिरे रोते चिल्लाते देखा। दीनरक्षक श्री नेमिकुमारने रथ रुकवाकर इस भयावने दृश्यका कारण सारथिसे पूछा। उत्तरमें यह सुनकर कि "इन पशुओंका मांस बारातमें आये हुए नीच मनुष्योंके लिये पकेगा" नेमि प्रभुको बड़ी घृणा हुई। फिर उन्होंने अवधिज्ञान द्वारा विचार कर देखा, तो इसका कारण कुछ और ही ज्ञात हुआ। उनको मालुम हो गया कि यह दृश्य इन्हें वैराग्य प्रगट करानेके लिये उनके बड़े भाईने रचा है। सब तरहसे परास्त होकर भावी राजलक्ष्मीकें लोभसे "श्री नेमिप्रभु पृथ्वी पर रहेंगे तो यही राजा होंगे और यदि मुनि हो जायेगे तो हम राज्य करेंगे" इस अभिप्रायसे यह सब प्रचंड श्रीकृष्णजीका ही किया हुआ है। बस, अब क्या था? इस प्रपंचको देख, श्री नेमिनाथको सचमुच वैराग्य प्रगट हो गया। वे विचारने लगे कि देखो, यह राज्य वैभव कैसा बुरा है; जिसके लिये बड़े बड़े पुरुष भी इतना प्रपंच रचते हैं। धिक्कार है इन इन्द्रिय भोगोंको जो जगतके जीवोंको स्वार्थमें इस तरह अन्धा कर देते हैं। क्षणभंगुर संसार है, इसमें आत्महित ही सार है, इत्यादि बातोंके विचारसे, नेमिनाथको परम वैराग्य हो गया। वे बारह भावनाओंका चिंतवन करने लगे। और शिरका मुकुट उतार कर पृथ्वी पर डाल दिया। कङ्कण तोड फेंक दिया। सांसारिक भोगोंसे मुख मोड़ लिया। संसारमें उदासी, मोक्षलक्ष्मीके अभिलाषी श्री नेमिकुमार, विवाहारम्भके सम्पूर्ण कार्योको छोड जैनेन्द्री दीक्षा धारण करके गिरनार ( जूनागढ) के पहाड पर योगाभ्यास करने लगे। सारे विषयभोगोंको छोड श्री राजुलदेवी जैसी पत्नीको त्याग, ध्यान ज्ञानमें मग्न हो गये।