Book Title: Aetihasik Striya
Author(s): Devendraprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 38
________________ महारानी चेलनादेवी [29 उन्होंने मुनिकी बहुत प्रकारके स्तुति की। रात्रि होनेसे मुनि महाराज कुछ बोल न सके। अतः राजा और रानी दोनोंने शेष रात्रि उन्हींके चरणारबिंदोंके समीप व्यतीत की। प्रातःकाल होते ही राजा और रानीने मुनि महाराजकी वंदना की। मुनि महाराजने दोनोंको समान रूपसे "धर्मवृद्धि" आशीर्वाद दिया। राजाके भकिरूपी समुद्रका तो अब ठिकाना ही क्या हो सकता था? उन्होंने समझ लिया कि यही सत्य गुरु हैं, जिनके स्वच्छ हृदयमें अपराधी और निरपराधी बराबर हैं! असीम भक्तिके कारण महाराजने मुनिके चरणोंमें पूर्व धर्मानुसार अपने सिरको अर्पण करनेकी इच्छा की। ___ मुनि अंतर्यामी थे, इसलिये उन्होंने इनके विचार समझ लिये तथा यह कार्य पापकर्म बतलाकर धर्मोपदेश दिया। राजाको बहुत आश्चर्य हुआ। अब उनकी श्रद्धा जैन धर्ममें पूर्ण रूपसे हो गयी। रानीने अपने सारे परिश्रमको सफल समझा तथा दम्पति यथार्थ आनंदके साथ काल व्यतीत करने लगे। रानी चेतनाके क्रमशः कुणिक, वारिषेण, हल्य, विहस्थ, जिनशत्रु, राजकुमार और मेघकुमार ये सात पुत्र-रत्न उत्पन्न हुए, जो कि विद्या, बल और रूपमें इन्द्रको भी मुग्ध करते थे। एक वनमाली (जगल महालके कार्यकर्ता मुहकमेके अफसर) ने राजसभामें आकर राजा श्रेणिकसे निवेदन किया कि-महाराज! आपके राज्यके अन्तर्गत विपुलाचल (विंध्याचल) पर्वतपर जगद्गुरु 24 वें तीर्थंकर वर्द्धमान स्वमी संसारी जीवोंके उपकारार्थ उपदेश देनेको पधारे हैं। राजाने इस समाचारको पाकर बहुत आनन्द मनाया। तथा महारानी चेलना और सर्व कुटुम्बियों सहित स्वामीजीके दर्शनोंके निमित्त गये।

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